एक परिसर में एक मूर्तिकार अपने काम में मसरूफ़ था.बना रहा था एक मूर्ति..एक युवक उस परिसर में पहुँचा और मूर्तिकार की कारीगरी देखने लगा.ईश्वर की जो मूर्ति वह कलाकार गढ़ रहा था ठीक वैसा ही शिल्प उस कलाकार से कुछ दूरी पर बनकर तैयार था.
युवक ने पूछा : क्या एक जैसी दो मूर्तियाँ स्थापित होंगी मंदिर में ?
कलाकार ने कहा नहीं..
तो दूसरी मूर्ति क्यों बना रहे हैं आप...? युवक ने प्रश्न किया.
कलाकार बोला: दर-असल उस मूर्ति की नाक पर एक ख़रोच सी आ गई है..
युवक का अगला प्रश्न था ..इस मूर्ति को तक़रीबन कितना ऊँचा स्थापित करेंगे आप ?
कलाकार ने बताया..लगभग 20 फ़ुट ऊपर.
युवक आश्वर्य से बोला इतनी दूरी पर स्थापित होने के बाद भगवान की नाक पर खरोंच है कौन जानेगा....
कलाकार ने उत्तर दिया बॆटा..मै और मेरा ईश्वर तो जानेंगे न ?
ये नीति कथा इस बात की ओर तो इशारा करती ही है कि हमें अपने कर्म के लिये ईमानदार रहना चाहिये.....और ये भी कि हमारे हाथ से हुई ग़लतियों को स्वीकारने की सचाई भी हम में होना ही चाहिये..क्योंकि मन की अदालत में अंतत: जुर्म साबित हो ही जाता है...और हाँ एक बात और कि हमें अपनी उत्कृष्टता के लिये हमेशा सचेत रहना चाहिये चाहे उसे कोई रेखांकित करे या न करे.
यहाँ हमें ख़लील ज़्रिबान की वह सूक्ति याद हो आती है...
Top quality emerges from culture of care.
आमीन.
3 comments:
शानदार बात है..
" इतना बतला दो,
अँदर बैठोँ की खातिर,
कैसे पर्दे डालोगे? "
ऐसी ही बात है
अँतरात्मा ही परमात्मा का अँश है -
शुभमस्तु --
स स्नेह,
-- लावण्या
बिल्कुल सच कहा है आपने हम अपने आपसे झूठ नहीं बोल सकते। हमारी आत्मा अगर मरी नहीं तो बिल्कुल भी नहीं, पर जिन लोगों की आत्मा मर जाती है उनके लिये सब जायज़ है।
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