Wednesday, December 23, 2009

कुछ देकर ख़ुश रहने वाला;मुंबई का वह रिक्षावाला



टाइटन इंडस्ट्रीज़ के सुवेंदु रॉय मुंबई के एक रिक्शा चालक से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने ताबड़तोड़ उनके अनुभव को सब के साथ बॉंटना चाहा। प्रस्तुत है वो प्रेरणादायी प्रसंगः

पिछले रविवार, मैं अपनी धर्मपत्नी और बच्चे के साथ अंधेरी से बान्द्रा जाना चाह रहा था। मैंने सड़क से गुजरते हुए एक रिक्शा रोका, इसी अपेक्षा के साथ कि रिक्शे की यह यात्रा भी आम रिक्शों जैसी रहने वाली है, किसी भी सुखद अनुभव की संभावना से परे।

जैसे ही रिक्शा रूका, हम सवार हुए, सफ़र शुरू हुआ तब मेरी नज़र कुछ पत्रिकाओं पर पड़ी जिन्हें कि हवाई जहाज में कुर्सी के सामने के झोले के समान एक झोले में रखा गया था। सामने देखा तो एक छोटा सा टी.वी. लगा था जिस पर दूरदर्शन का कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था। मैं और मेरी पत्नी अविश्वास किन्तु अचरच भरे रोमांच से एक-दूसरे को ताकने लगे। हमारे सामने ही एक प्राथमिक उपचार डिब्बा (फर्स्ट ऐड बॉक्स) दिखा, जिसमें रूई, डेटॉल एवं कुछ आवश्यक दवाइयॉं पड़ी हुई थीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि मैं किसी ऐसे-वैसे रिक्शा में नहीं बैठा था, यह तो कुछ विशेष ही था। नई खोज के विचार से जब मैंने अपनी नज़र को और पैना किया तो पाया कि रिक्शे में एक रेडियो, एक अग्निशामक यंत्र, दीवार घड़ी, कैलेन्डर भी यथास्थान रखे थे। ख़ुशी उस व़क़्त बढ़ गई जब विभिन्न धर्मों के प्रति आस्था के परिचायक चित्र भी चिपके देखे। इनमें हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई एवं बौद्ध, सभी तो थे। एक अन्य तस्वीर दिखा रहीथी 26 नवंबर के शहीद वीरों काम्टे, सालस्कर, करकरे तथा उन्नीकृष्णन के चेहरे। मुझे समय में आ गया कि न केवल मेरा रिक्शा बल्कि उसका चालक भी अतिविशिष्ट था।

जल्द ही मैं रिक्शा वाले से बातचीत में मशगूल हो गया और मेरे मन से असमंजस और अविश्वास की भावना धीरे-धीरे लुप्त हो गई। मुझे ज्ञात हुआ कि वो रिक्शा चालक पिछले आठ-नौ वर्षों से रिक्शा चला रहा था, तब से ही जब उसकी प्लास्टिक कंपनी की नौकरी छूट गई थी, कंपनी का कारोबार बंद हो जाने के कारण। स्कूल जाने वाले दो बच्चों का पिता सुबह 8 बजे से रात्रि 10 बजे तक दौड़ता ही रहता था। अपवाद भी तब होता, जब वो बीमार पड़ जाता।

हमें महसूस हुआ कि हम उस रोज़ एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आए, जो मुंबई का, काम करने के जोश का, अविरल चलते रहने का तथा जीवन में उत्कृष्टता का सही माने में प्रतिनिधित्व करता है। यह जानते हुए भी कि उसके पास काम के बाद समय कहॉं बचता होगा, मैंने उससे पूछ ही लिया कि क्या वो और कुछ भी करता है ? उसने कहा कि सप्ताह में एक बार जब भी उसके पास थोड़ा पैसा बचता है, वो अंधेरी में महिलाश्रम में जाता है, जहॉं वो टूथब्रश, टूथपेस्ट, साबुन, तेल आदि दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भेंट करता है। उसने रिक्शे पर पुते एक संदेश की तरफ़ मेरा ध्यान आकर्षित किया जिसमें लिखा था कि मीटर शुल्क पर 25 प्रतिशत रियायत शारीरिक अथवा मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त लोगों के लिए तथा नेत्रहीन यात्रियों के लिए रु.50 तक की यात्रा निःशुल्क रहेगी।

मैं और मेरी धर्मपत्नी अवाक्‌ रह गए। यह इंसान तो एक हीरो था। एक हीरो या एक हीरा, जिसके प्रति हमारा मस्तक सम्मान से झुक गया। 45 मिनटों का यह सफ़र जीवन का अनमोल उपदेश बन गया, निःस्वार्थ भावना का, मानवता का एवं गुणवत्ता के प्रति कटिबद्धता का।

जब हम रिक्शे से उतरे तो किराए के अलावा में अधिक तो नहीं कर पाया, टिप के रूपमें एक नेत्रहीन की मु़फ़्त यात्रा का शुल्क अवश्य दिया। मुझे विश्वास है कि आप भी कभी मुंबई जाएँगे और रिक्शे वाले के रूप में श्री संदीप बच्छे को मिलेंगेतो सुखद अनुभूति से ओतप्रोत हो जाएँगे।

यदि याद रहे तो उनके ऑटो रिक्शा का नंबर है – MH-02-Z-8508

बड़ी-बड़ी बातों का इंतज़ार कर रहे
हम सब लोग यह भूल जाते हैं कि
छोटी-छोटी बातें ही एक दिन
बड़ी ख़ुशियॉं दे जाती हैं।


यह लेख जीवन में प्रसन्नता को स्थापित करने वाले संगठन स्वयं उत्थान के परिपत्र से साभार (रेखांकन:दिलीप चिंचालकर)

Tuesday, January 20, 2009

आप प्रसन्न हैं तो मालामाल हैं


जीवन की भागम-भाग और अवमूल्यन से भरे समय में प्रसन्नता दुर्लभ होती जा रही है।ज़िन्दगी में सारे तामझाम की उपलब्धता के बावजूद ख़ुशी पाना मुश्किल होता जा रहा है. वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी श्री नरहरि पटेल का यह निबंध बता रहा है कि प्रसन्नता किस तरह से आपके मन के सच्चे वैभव का आलोक रचती है.यह आलेख श्री पटेल की हाल ही में जारी पुस्तक जाने क्या मैंने कही से लिया गया है.


प्रसन्नता आत्मीय गुण है। जो आत्मीय रूप से प्रसन्न है, वही हर्षित-मुख है। प्रसन्नता आंतरिक सकारातमक का द्योतक और आनंद का पयार्यवाची भाव है। देह और इंद्रियॉं जब ब्राह्य रूप से प्रफुल्लित होती हैं, समझो आपके अंतर्मन में ख़ुशी विराजमान है। यह ख़ुशी इंद्रियों द्वारा ख़ासकर मुख द्वारा, हर्ष, उल्लास और उमंग के रूप में प्रसारित होती है। यही आंतरिक प्रसन्नता जब चर-अचर और सर्वआत्माओं में व्याप्त हो जाती है तब वह सर्वकल्याणी होती है और तब प्रकृति के उपादान फल, फूल और ब्राह्य जगत भी ख़ुशबू और बहार से लदे भरपूर नज़र आते हैं। प्रकृति के कण-कण में और पूरे वातावरण में भी रूहानी उल्लास भर जाता है।

आंतरिक प्रसन्नता आत्मा का ऐसा उपहार है, जो प्रत्येक आत्मा को परमात्मा ने मूल गुण के रूप में दिया है और इसीलिए यह विनाशी और वरदानी गुण है। देह और दुनिया से प्राप्त प्रसन्नता विनाशी है। आंतरिक रूहानी प्रसन्नता अविनाशी है। जब यह ख़ुशी औरों में बॅंट जाती है तो सभी के गमों को दूर कर वरदानी सिद्ध हो जाती हे। दरअसल जो लोग निर्भय और निर्दोष हैं, वे सहज ही प्रसन्निचत रहते हैं। निर्विकारी प्रसन्नता उस निर्विकारी बालक अथवा कमल पुष्प के समान होती है, जो ब्राह्य संस्कारों से अछूता विशुद्ध और निर्विकारी होता है। यह निर्विकारी हर्षितमुखता देवी-देवताओं के मुख पर सदैव नाचती रहती है। कहा जाता है प्रसन्नता से बड़ी दौलत नहीं। आपकी आंतरिक ख़ुशी गुम हो गई, समझो आप कंगाल हो गए। चाहे आप कितने ही धनी क्यों न हो। आप प्रसन्न हैं तो मालामाल हैं।

जो हर्षित मुख है, समझो वह छल-छदम से दूर हैं। उससे कोई भी मैत्री करना चाहेगा। विकारी मुख-मुद्रा वालों की ओर कोई रुख करना नहीं चाहेगा। जो प्रसन्न है उसमें सहयोग, सद्भावना और मैत्री का आमंत्रण होगा ही। हर्षित मुख व्यक्ति में एक विशेष अलौकिक आकर्षण और प्रसन्नचित गुण का भाव तैरता रहेगा। ऐसा मुख बिना भौतिक श़ृंगार के अलौकिक आभूषणें से सजा रहेगा। कहते हैं - रूप अंतस में जन्म लेकर आकृति में आ जाता है। जो प्रसन्निचत है, वह प्रश्नचित्त हो ही नहीं सकता। अनिश्चय उससे हमेशा दूर रहेगा। वह निश्चय बुद्धि होगा।

जो हर्षिक मुख है वह व्यर्थ चिंतन से मुक्त है। व्यर्थ चिंतर और व्यर्थ विचार, ईर्ष्या, द्वेष, संशय, निराशा ही हीनभावों को बल देते हैं। समर्थ वही हैं जो हर्षित मुख हैं।

लोभ और मोह प्रसन्नता के दुश्मन हैं। लोभी की कामनाओं और इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती और इसीलिए वह सदा असंतुष्ट और अप्रसन्न रहेगा। जो अप्रसन्न है वह औरों की प्रसन्नता में भी दोष ढॅंढेगा। आलसी और प्रमादी कभी प्रसन्न नहीं हो सकते। पुरुषार्थी सदैव प्रसन्न रहते हैं। पुरुषार्थी गुणों का अर्जन कर सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहेंगे। वे कभी भी औरों के दोष नहीं देखेंगे। वे कभी किसी की उपलब्धि से ईर्ष्या नहीं करेंगे। वे आत्मा-परमात्मा और अपने सुकर्म में निश्चय रखेंगे। वे सदा ख़ुश रहेंगे और इस परम वाक्य में विश्वास करेंगे कि जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है औरजो होगा वह भी अच्छा ही होगा। जो अप्रसन्न है समझो वह आत्म-रूप में है ही नहीं। वह परमात्मा की अवज्ञा में है। वह क्रूर और विध्वसंक भी बन सकता है अपनी दानवी प्रवृत्तियों से। उसके मुख से मुस्कान हमेशा निष्कासित रहेगी। उसकी हॅंसी विकराल कुटिल औ अट्टहास से भरी होगी। वह तमाम अशांति और विध्वंस का कर्ता और दोषी होगा। उसे औरों की प्रसन्नता की जगह दुःख देना ही अच्छा लगेगा। उसे कौन चाहेगा ? प्रसन्न व्यक्ति सदा सयाने और रहमदिल होंगे। वे आदरणीय भी होंगे। मन,वचन और कर्म से सात्विक गुणों से पूर्ण निष्कामकर्मी और निर्विकारी होंगे। सुख-शांति और आनंद के प्रदाता होंगे और इसीलिए दर्शनीय भी होंगे। प्रसन्नचित्त और हर्षिक मुख बनने के लिए सूक्ष्म अभियान को त्यागें। सच्चे पुरुषार्थी बनें। अपनी अवस्था को अचल, अडोल रखें और व्यर्थ से बचें। परचिंतन और परदर्शन की निगाह खत्म करें। प्रसन्नचित बनकर ख़ुशनसीब बनें। किसी की गलती पर विचार न करें। अनासक्त और सकारात्मक सोच के धनी बनें तो वरदानी बनने से आपको कोई नहीं रोक सकता। प्रसन्नचित्त बनने के लिए पाई-पैसे का कोई खर्च नहीं। घर बैठे प्रसन्नता से ख़ुशी बॉंटे तो यह ख़ुशी पद्मगुणा आपके पास लौटकर आएगी और आप ख़ुशियों के सिंहासन पर विराजित रहेंेगे, चाहे आप फटे टाट पर बैठे होंगे। जो अपने गमों को भुलाकर औरों की प्रसन्नता की चिंता करते हैं, वे चलते-फिरते फरिश्ते हैं।

ग़मों को मुकद्दर की ठोकर न समझो
ये ख़ुशियों के आने का है एक इशारा

Saturday, January 10, 2009

सिर्फ़ कुछ विपरीत होने के डर से कोशिश मत छोडिये.


सात साल का प्यारा सा बच्चा था बंटी। उसके माता-पिता बहुत मेहनत करते, दिन-दिन भर घर से बाहर रहते और थके-हारे शाम को घर लौटते। बंटी भी अपने स्कूल, दोस्तों, पढ़ाई और खेलकूद में खोया रहता।

रविवार की छुट्टी थी। मम्मी पापा सो रहे थे पर बंटी की नींद जल्दी खुल गई। उसके मन में विचार आया कि रोज़ मम्मी मुझे नई-नई चीज़ें बनाकर खिलाती है, पापा मेरा इतना ख्याल रखते हैं, क्यों ना मैं आज उनके लिए कुछ नाश्ता बनाऊँ ? उसके केक बनाने की सोची और बिना शोर किए रसोई घर में जा पहुँचा। उसने एक बर्तन और चम्मच निकाला और कुर्सी खींचकर उस पर चढ़ गया ताकि मैदे का डिब्बा उतार सके। भारी होने से डिब्बा ज़मीन पर गिरा और मैदा सारी रसोई में फैल गया। वह डर गया और जल्दी-जल्दी मैदे को हाथ से समेट कर बर्तन में डालने लगा। बर्तन में मैदा डाल कर, उसमें दूध और शकर मिला कर वह कोशिश करने लगा कि अच्छा सा केक बना कर अपने मम्मी-पापा को ख़ुश कर सके, उन्हें अच्छी तरह खिला सके।

इस कोशिश में उसे निराशा भी हाथ आई और वह ख़ुद पूरा मैदे के घोल से गंदा हो गया। उसे सूझ नहीं पड़ रहा था कि अब क्या करे ? अपने केक को कैसे पकाए क्योंकि उसे तो गैस जलाना या ओवन चालू करना भी नहीं आता था। इतने में ही उसकी बिल्ली बर्तन पर झपटी और घोल को नीचे गिरा दिया। बंटी घबरा कर रोने लगा और अपने कपड़ो से घोल साफ़ करने लगा।

वह कुछ अच्छा करना चाहता था पर सब उल्टा-पुल्टा हो रहा था। तभी उसके पापा वहॉं आ कर उसे देखने लगे। उन्होंने धीरे से आकर अपने रोते हुए बेटे को गोद में उठाया, उसे सीने से लगाया और प्यार से पुचकारने लगे। पापा के कपड़ों पर भी घोल की चिपचिपाहट साफ़ नज़र आ रही थी।

ईश्वर भी हमारे साथ कुछ ऐसा ही करता है। हम जीवन में कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर कई बार सारा काम बिगड़ जाता है। शादीशुदा लोगों के दाम्पत्य में कभी चिपचिपाहट हो जाती है और कभी हम किसी दोस्त की बेइ़ज़्ज़ती कर बैठते हैं। कभी हमारी नौकरी ख़तरे में पड़ जाती है तो कभी स्वास्थ्य साथ नहीं देता है। ऐसे में हम आँखों में आँसू भरे चुपचाप खड़े रहते हैं क्योंकि हमें समझ में नहीं आता कि दरअसल हम क्या करें। यही वक़्त होता है जब एक अदृश्य शक्ति जिसे हम ईश्वर या अल्लाह कहते हैं; हमें थामता है और हमें दुलार कर, हमारी भूलों को क्षमा कर खड़े रहने की शक्ति देता है। हमारी सारी गंदगी और चिपचिपाहट ईश्वर स्वयं ले लेता है। सिर्फ़ इस डर से कि हम गंदे हो जाएंगे या अस्त-व्यस्त हो जाएँगे, हम "केक' बनाने की कोशिश नहीं छोड़ सकते। अपनों के लिए हमारी यह कोशिश जारी रहनी चाहिए। कभी न कभी तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी और तब हमें कम से कम यह संतोष तो रहेगा कि हमने प्रयास किया।

याद यही रखना है कि - 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।'


(मेरे आत्मीय श्री एस.नंद के परिपत्र स्वयं उत्थान से साभार )