tag:blogger.com,1999:blog-11302146833080737712024-02-19T11:38:12.408+05:30शब्द-सृष्टिकल कभी नहीं आता ;अच्छाई की शुरूआत...अभी.शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.comBlogger48125tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-67826998741472319252010-08-25T07:00:00.000+05:302010-08-25T07:00:00.650+05:30इस धरती पर कोई भी अमर नहीं है !<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijbA_vLt_XDwAUyTiuayrJtqudnPuBph5q6TTuMo1XrNhZ9cVP8oDsXwO2EHss244X_-j_zpMcWJVl5BL8oejqy2iPW_Dx_SNYe5BTe6iFTPksAeyfDI-kSAep8f3hfJC2Eb2fN8uFo-CV/s1600/celebrate-life-not-death1.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5509054122651805842" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 258px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijbA_vLt_XDwAUyTiuayrJtqudnPuBph5q6TTuMo1XrNhZ9cVP8oDsXwO2EHss244X_-j_zpMcWJVl5BL8oejqy2iPW_Dx_SNYe5BTe6iFTPksAeyfDI-kSAep8f3hfJC2Eb2fN8uFo-CV/s320/celebrate-life-not-death1.jpg" border="0" /></a><br /><div>मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। इस सत्य को हम जितना जल्दी स्वीकार कर लें, उतने ही हम सुखी, शांत और संयमित रहेंगे। धरती पर कोई भी जीवन अमर नहीं है। अमर है तो वह है केवल "परिवर्तन"। बाकी सब नाशवान ही हैं।<br /><br />मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। इस सत्य को हम जितना जल्दी स्वीकार कर लें, उतने ही हम सुखी, शांत और संयमित रहेंगे। धरती पर कोई जीव अमर नहीं है। अमर है तो वह है केवल "परिवर्तन'। बाकी सब नाशवान ही हैं। भगवान ने स्वयं भी जब मनुष्य रूप धरा तो उन्हें भी एक अवधि के उपरांत जाना पड़ा तो हम तो साधारण मनुष्य ही हैं। यह सत्य हम सभी जानते हैं, पर मानते नहीं हैं। इसी कारण अपने झूठे मान-सम्मान, अहंकार और मोह-माया के वशीभूत होकर कभी-कभी जान-बूझकर किसी के दिल को ठेस पहुँचाने वाली बातें भी करते हैं। और तो और, खुद को सही साबित करने के लिए किसी को भी छोटी-छोटी बात में नीचा दिखाकर या किसी का मज़ाक उड़ाकर विजयी मुस्कान भी भरते हैं। कई बार तो गंदी राजनीति करने से भी गुरेज़ नहीं करते। ये सभी तुच्छ कार्य कर हम लोगों के सामने तो गर्व महसूस करते हैं,पर बाद में कई लोगों की अंतरआत्मा उन्हें कचोटती है। अक्सर भावुक लोग गलत व्यवहार करने के उपरांत पछताते भी हैं कि अपने छोटे से अहम को क़ायम रखने के लिए हमने किसी को कितना गिराया या सताया और फिर ऐसे क्रियाकलाप स्वयं उन्हें और सामने वालों को भी रूहानी अशांत और मानसिक अस्थिरता ही देते हैं। "अहम' और "मैं' की इन सभी बुरी आदतों से जो भी भावुक इंसान निजात पाना चाहता है, वह रोज़ सुबह उठकर यह सोच ले कि शायद इस दुनिया में मेरा यह आज आखिरी दिन है। ऐसा दिल से मान लीजिए, फिर देखिए हो सकता है आपके व्यवहार में कुछ अंतर आ जाए। आप शायद कोई भी ऐसा ग़लत कार्य न कर पाएँ, जिससे किसी का दिल दुखे या किसी का अपमान हो। और तो और, हो सकता है कि आप किसी की मदद कर दें, यह सोचकर कि आज तो यह मेरा आखिरी दिन ही है तो क्यों न किसी का भला कर दूँ। इस प्रकार आपका सारा दिन निष्कपट भाव से, सहृदयता से गुज़र जाएगा और फिर रात को सोते समय भगवान को धन्यवाद कहना भी न भूलें कि आज का दिन बहुत शांति और सरलता से बीता। अब आपको नींद भी सुकूनभरी आएगी। फिर अगले दिन सुबह उठकर वही सोच लीजिए। यह दोहराते रहें। हो सकता है इस नकारात्मक भाव से ही आप एक सकारात्मक, सच्चे, हरदिल अज़ीज़ इंसान बन जाएँ, जिसके मन में न कोई छल-कपट है, न किसी प्रकार का कोई पश्चाताप।</div><br /><div></div><br /><div><strong><span style="color:#ff0000;">-भावना नेवासकर</span><br /></strong><em>(भावनाजी एक गृहिणी हैं लेकिन कम्प्यूटर इंजीनियरिंग का अध्ययन भी कर रहीं हैं.मेरे शहर इन्दौर में ही रहतीं हैं. मानवीय मूल्य का उजाला और जीवन-मृत्यु के शाश्वत सत्य को रेखांकित करता ये लेख नईदुनिया रविवारीय में प्रकाशित हुआ. सोचा अपने ब्लॉग मित्रों तक भी यह शब्द-भावना जाना चाहिये.)</em> </div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-67740411786328520472009-12-23T19:48:00.003+05:302009-12-23T19:56:10.648+05:30कुछ देकर ख़ुश रहने वाला;मुंबई का वह रिक्षावाला<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4smRVvlCET6Ne85hre69XPTgMO9ROwpqoXrGqTT_Fo7oX3-SK-KbR-v25U-ZQlPmu7l23w2aHImaRHqDBM-Gj68Z1wqwOnw1-Kf7a5yRaDspad41nYJzNnRDR8u2c0wwIiBgX1TK7LM0M/s1600-h/Riksha+bala.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5418437321177424994" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 288px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4smRVvlCET6Ne85hre69XPTgMO9ROwpqoXrGqTT_Fo7oX3-SK-KbR-v25U-ZQlPmu7l23w2aHImaRHqDBM-Gj68Z1wqwOnw1-Kf7a5yRaDspad41nYJzNnRDR8u2c0wwIiBgX1TK7LM0M/s320/Riksha+bala.jpg" border="0" /></a><br /><div><br />टाइटन इंडस्ट्रीज़ के सुवेंदु रॉय मुंबई के एक रिक्शा चालक से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने ताबड़तोड़ उनके अनुभव को सब के साथ बॉंटना चाहा। प्रस्तुत है वो प्रेरणादायी प्रसंगः<br /><br />पिछले रविवार, मैं अपनी धर्मपत्नी और बच्चे के साथ अंधेरी से बान्द्रा जाना चाह रहा था। मैंने सड़क से गुजरते हुए एक रिक्शा रोका, इसी अपेक्षा के साथ कि रिक्शे की यह यात्रा भी आम रिक्शों जैसी रहने वाली है, किसी भी सुखद अनुभव की संभावना से परे।<br /><br />जैसे ही रिक्शा रूका, हम सवार हुए, सफ़र शुरू हुआ तब मेरी नज़र कुछ पत्रिकाओं पर पड़ी जिन्हें कि हवाई जहाज में कुर्सी के सामने के झोले के समान एक झोले में रखा गया था। सामने देखा तो एक छोटा सा टी.वी. लगा था जिस पर दूरदर्शन का कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था। मैं और मेरी पत्नी अविश्वास किन्तु अचरच भरे रोमांच से एक-दूसरे को ताकने लगे। हमारे सामने ही एक प्राथमिक उपचार डिब्बा (फर्स्ट ऐड बॉक्स) दिखा, जिसमें रूई, डेटॉल एवं कुछ आवश्यक दवाइयॉं पड़ी हुई थीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि मैं किसी ऐसे-वैसे रिक्शा में नहीं बैठा था, यह तो कुछ विशेष ही था। नई खोज के विचार से जब मैंने अपनी नज़र को और पैना किया तो पाया कि रिक्शे में एक रेडियो, एक अग्निशामक यंत्र, दीवार घड़ी, कैलेन्डर भी यथास्थान रखे थे। ख़ुशी उस व़क़्त बढ़ गई जब विभिन्न धर्मों के प्रति आस्था के परिचायक चित्र भी चिपके देखे। इनमें हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई एवं बौद्ध, सभी तो थे। एक अन्य तस्वीर दिखा रहीथी 26 नवंबर के शहीद वीरों काम्टे, सालस्कर, करकरे तथा उन्नीकृष्णन के चेहरे। मुझे समय में आ गया कि न केवल मेरा रिक्शा बल्कि उसका चालक भी अतिविशिष्ट था।<br /><br />जल्द ही मैं रिक्शा वाले से बातचीत में मशगूल हो गया और मेरे मन से असमंजस और अविश्वास की भावना धीरे-धीरे लुप्त हो गई। मुझे ज्ञात हुआ कि वो रिक्शा चालक पिछले आठ-नौ वर्षों से रिक्शा चला रहा था, तब से ही जब उसकी प्लास्टिक कंपनी की नौकरी छूट गई थी, कंपनी का कारोबार बंद हो जाने के कारण। स्कूल जाने वाले दो बच्चों का पिता सुबह 8 बजे से रात्रि 10 बजे तक दौड़ता ही रहता था। अपवाद भी तब होता, जब वो बीमार पड़ जाता।<br /><br />हमें महसूस हुआ कि हम उस रोज़ एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आए, जो मुंबई का, काम करने के जोश का, अविरल चलते रहने का तथा जीवन में उत्कृष्टता का सही माने में प्रतिनिधित्व करता है। यह जानते हुए भी कि उसके पास काम के बाद समय कहॉं बचता होगा, मैंने उससे पूछ ही लिया कि क्या वो और कुछ भी करता है ? उसने कहा कि सप्ताह में एक बार जब भी उसके पास थोड़ा पैसा बचता है, वो अंधेरी में महिलाश्रम में जाता है, जहॉं वो टूथब्रश, टूथपेस्ट, साबुन, तेल आदि दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भेंट करता है। उसने रिक्शे पर पुते एक संदेश की तरफ़ मेरा ध्यान आकर्षित किया जिसमें लिखा था कि मीटर शुल्क पर 25 प्रतिशत रियायत शारीरिक अथवा मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त लोगों के लिए तथा नेत्रहीन यात्रियों के लिए रु.50 तक की यात्रा निःशुल्क रहेगी।<br /><br />मैं और मेरी धर्मपत्नी अवाक् रह गए। यह इंसान तो एक हीरो था। एक हीरो या एक हीरा, जिसके प्रति हमारा मस्तक सम्मान से झुक गया। 45 मिनटों का यह सफ़र जीवन का अनमोल उपदेश बन गया, निःस्वार्थ भावना का, मानवता का एवं गुणवत्ता के प्रति कटिबद्धता का।<br /><br />जब हम रिक्शे से उतरे तो किराए के अलावा में अधिक तो नहीं कर पाया, टिप के रूपमें एक नेत्रहीन की मु़फ़्त यात्रा का शुल्क अवश्य दिया। मुझे विश्वास है कि आप भी कभी मुंबई जाएँगे और रिक्शे वाले के रूप में श्री संदीप बच्छे को मिलेंगेतो सुखद अनुभूति से ओतप्रोत हो जाएँगे।<br /><br /><strong>यदि याद रहे तो उनके ऑटो रिक्शा का नंबर है – MH-02-Z-8508</strong><br /><br /><em>बड़ी-बड़ी बातों का इंतज़ार कर रहे<br />हम सब लोग यह भूल जाते हैं कि<br />छोटी-छोटी बातें ही एक दिन<br />बड़ी ख़ुशियॉं दे जाती हैं।</em></div><br /><div><em></em></div><br /><div><em>यह लेख जीवन में प्रसन्नता को स्थापित करने वाले संगठन स्वयं उत्थान के परिपत्र से साभार (रेखांकन:दिलीप चिंचालकर) </em></div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-75177227923479637482009-01-20T19:28:00.003+05:302009-01-20T19:36:14.391+05:30आप प्रसन्न हैं तो मालामाल हैं<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaohRucQdpjeUf098aBMKA3uUGLKbo025oCDPBYyvzFoA09WKPYFNA1lVOTmLNLBNgsqFAYCbI5YVxA0Rh6lcQkuFVjUp5deEOmjiBm8TB8nDA7LNwI3X7eWtHaO7yifxJa-RTSSGvX9Bk/s1600-h/Picture+025.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5293376307697105634" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaohRucQdpjeUf098aBMKA3uUGLKbo025oCDPBYyvzFoA09WKPYFNA1lVOTmLNLBNgsqFAYCbI5YVxA0Rh6lcQkuFVjUp5deEOmjiBm8TB8nDA7LNwI3X7eWtHaO7yifxJa-RTSSGvX9Bk/s320/Picture+025.jpg" border="0" /></a><br /><div><span style="color:#006600;"><em>जीवन की भागम-भाग और अवमूल्यन से भरे समय में प्रसन्नता दुर्लभ होती जा रही है।ज़िन्दगी में सारे तामझाम की उपलब्धता के बावजूद ख़ुशी पाना मुश्किल होता जा रहा है. वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी श्री नरहरि पटेल का यह निबंध बता रहा है कि प्रसन्नता किस तरह से आपके मन के सच्चे वैभव का आलोक रचती है.यह आलेख श्री <span class="">पटेल </span>की हाल ही में जारी पुस्तक जाने क्या मैंने कही से लिया गया है.<br /></em></span><br /><br />प्रसन्नता आत्मीय गुण है। जो आत्मीय रूप से प्रसन्न है, वही हर्षित-मुख है। प्रसन्नता आंतरिक सकारातमक का द्योतक और आनंद का पयार्यवाची भाव है। देह और इंद्रियॉं जब ब्राह्य रूप से प्रफुल्लित होती हैं, समझो आपके अंतर्मन में ख़ुशी विराजमान है। यह ख़ुशी इंद्रियों द्वारा ख़ासकर मुख द्वारा, हर्ष, उल्लास और उमंग के रूप में प्रसारित होती है। यही आंतरिक प्रसन्नता जब चर-अचर और सर्वआत्माओं में व्याप्त हो जाती है तब वह सर्वकल्याणी होती है और तब प्रकृति के उपादान फल, फूल और ब्राह्य जगत भी ख़ुशबू और बहार से लदे भरपूर नज़र आते हैं। प्रकृति के कण-कण में और पूरे वातावरण में भी रूहानी उल्लास भर जाता है।<br /><br />आंतरिक प्रसन्नता आत्मा का ऐसा उपहार है, जो प्रत्येक आत्मा को परमात्मा ने मूल गुण के रूप में दिया है और इसीलिए यह विनाशी और वरदानी गुण है। देह और दुनिया से प्राप्त प्रसन्नता विनाशी है। आंतरिक रूहानी प्रसन्नता अविनाशी है। जब यह ख़ुशी औरों में बॅंट जाती है तो सभी के गमों को दूर कर वरदानी सिद्ध हो जाती हे। दरअसल जो लोग निर्भय और निर्दोष हैं, वे सहज ही प्रसन्निचत रहते हैं। निर्विकारी प्रसन्नता उस निर्विकारी बालक अथवा कमल पुष्प के समान होती है, जो ब्राह्य संस्कारों से अछूता विशुद्ध और निर्विकारी होता है। यह निर्विकारी हर्षितमुखता देवी-देवताओं के मुख पर सदैव नाचती रहती है। कहा जाता है प्रसन्नता से बड़ी दौलत नहीं। आपकी आंतरिक ख़ुशी गुम हो गई, समझो आप कंगाल हो गए। चाहे आप कितने ही धनी क्यों न हो। आप प्रसन्न हैं तो मालामाल हैं।<br /><br />जो हर्षित मुख है, समझो वह छल-छदम से दूर हैं। उससे कोई भी मैत्री करना चाहेगा। विकारी मुख-मुद्रा वालों की ओर कोई रुख करना नहीं चाहेगा। जो प्रसन्न है उसमें सहयोग, सद्भावना और मैत्री का आमंत्रण होगा ही। हर्षित मुख व्यक्ति में एक विशेष अलौकिक आकर्षण और प्रसन्नचित गुण का भाव तैरता रहेगा। ऐसा मुख बिना भौतिक श़ृंगार के अलौकिक आभूषणें से सजा रहेगा। कहते हैं - रूप अंतस में जन्म लेकर आकृति में आ जाता है। जो प्रसन्निचत है, वह प्रश्नचित्त हो ही नहीं सकता। अनिश्चय उससे हमेशा दूर रहेगा। वह निश्चय बुद्धि होगा।<br /><br />जो हर्षिक मुख है वह व्यर्थ चिंतन से मुक्त है। व्यर्थ चिंतर और व्यर्थ विचार, ईर्ष्या, द्वेष, संशय, निराशा ही हीनभावों को बल देते हैं। समर्थ वही हैं जो हर्षित मुख हैं।<br /><br />लोभ और मोह प्रसन्नता के दुश्मन हैं। लोभी की कामनाओं और इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती और इसीलिए वह सदा असंतुष्ट और अप्रसन्न रहेगा। जो अप्रसन्न है वह औरों की प्रसन्नता में भी दोष ढॅंढेगा। आलसी और प्रमादी कभी प्रसन्न नहीं हो सकते। पुरुषार्थी सदैव प्रसन्न रहते हैं। पुरुषार्थी गुणों का अर्जन कर सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहेंगे। वे कभी भी औरों के दोष नहीं देखेंगे। वे कभी किसी की उपलब्धि से ईर्ष्या नहीं करेंगे। वे आत्मा-परमात्मा और अपने सुकर्म में निश्चय रखेंगे। वे सदा ख़ुश रहेंगे और इस परम वाक्य में विश्वास करेंगे कि जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है औरजो होगा वह भी अच्छा ही होगा। जो अप्रसन्न है समझो वह आत्म-रूप में है ही नहीं। वह परमात्मा की अवज्ञा में है। वह क्रूर और विध्वसंक भी बन सकता है अपनी दानवी प्रवृत्तियों से। उसके मुख से मुस्कान हमेशा निष्कासित रहेगी। उसकी हॅंसी विकराल कुटिल औ अट्टहास से भरी होगी। वह तमाम अशांति और विध्वंस का कर्ता और दोषी होगा। उसे औरों की प्रसन्नता की जगह दुःख देना ही अच्छा लगेगा। उसे कौन चाहेगा ? प्रसन्न व्यक्ति सदा सयाने और रहमदिल होंगे। वे आदरणीय भी होंगे। मन,वचन और कर्म से सात्विक गुणों से पूर्ण निष्कामकर्मी और निर्विकारी होंगे। सुख-शांति और आनंद के प्रदाता होंगे और इसीलिए दर्शनीय भी होंगे। प्रसन्नचित्त और हर्षिक मुख बनने के लिए सूक्ष्म अभियान को त्यागें। सच्चे पुरुषार्थी बनें। अपनी अवस्था को अचल, अडोल रखें और व्यर्थ से बचें। परचिंतन और परदर्शन की निगाह खत्म करें। प्रसन्नचित बनकर ख़ुशनसीब बनें। किसी की गलती पर विचार न करें। अनासक्त और सकारात्मक सोच के धनी बनें तो वरदानी बनने से आपको कोई नहीं रोक सकता। प्रसन्नचित्त बनने के लिए पाई-पैसे का कोई खर्च नहीं। घर बैठे प्रसन्नता से ख़ुशी बॉंटे तो यह ख़ुशी पद्मगुणा आपके पास लौटकर आएगी और आप ख़ुशियों के सिंहासन पर विराजित रहेंेगे, चाहे आप फटे टाट पर बैठे होंगे। जो अपने गमों को भुलाकर औरों की प्रसन्नता की चिंता करते हैं, वे चलते-फिरते फरिश्ते हैं।<br /><br /><strong><span style="color:#990000;">ग़मों को मुकद्दर की ठोकर न समझो<br />ये ख़ुशियों के आने का है एक इशारा</span></strong></div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-85631869798063196072009-01-10T19:15:00.002+05:302009-01-10T19:23:14.780+05:30सिर्फ़ कुछ विपरीत होने के डर से कोशिश मत छोडिये.<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrtHzRQcO7RNsBYgKMyjXUkjmHDyLUqyBi20efM4kBIvCK_4bink5dqtqIaUdwCZHof0E75NMKvVNyj7hWCtkf3p0qyorswfD-w7Cc7E5BTQ6WQ8ClxWvV661XsmQM7XNirHX85KJmKtFI/s1600-h/father+and+son.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5289662583490023554" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrtHzRQcO7RNsBYgKMyjXUkjmHDyLUqyBi20efM4kBIvCK_4bink5dqtqIaUdwCZHof0E75NMKvVNyj7hWCtkf3p0qyorswfD-w7Cc7E5BTQ6WQ8ClxWvV661XsmQM7XNirHX85KJmKtFI/s320/father+and+son.jpg" border="0" /></a><br /><div>सात साल का प्यारा सा बच्चा था बंटी। उसके माता-पिता बहुत मेहनत करते, दिन-दिन भर घर से बाहर रहते और थके-हारे शाम को घर लौटते। बंटी भी अपने स्कूल, दोस्तों, पढ़ाई और खेलकूद में खोया रहता।<br /><br />रविवार की छुट्टी थी। मम्मी पापा सो रहे थे पर बंटी की नींद जल्दी खुल गई। उसके मन में विचार आया कि रोज़ मम्मी मुझे नई-नई चीज़ें बनाकर खिलाती है, पापा मेरा इतना ख्याल रखते हैं, क्यों ना मैं आज उनके लिए कुछ नाश्ता बनाऊँ ? उसके केक बनाने की सोची और बिना शोर किए रसोई घर में जा पहुँचा। उसने एक बर्तन और चम्मच निकाला और कुर्सी खींचकर उस पर चढ़ गया ताकि मैदे का डिब्बा उतार सके। भारी होने से डिब्बा ज़मीन पर गिरा और मैदा सारी रसोई में फैल गया। वह डर गया और जल्दी-जल्दी मैदे को हाथ से समेट कर बर्तन में डालने लगा। बर्तन में मैदा डाल कर, उसमें दूध और शकर मिला कर वह कोशिश करने लगा कि अच्छा सा केक बना कर अपने मम्मी-पापा को ख़ुश कर सके, उन्हें अच्छी तरह खिला सके।<br /><br />इस कोशिश में उसे निराशा भी हाथ आई और वह ख़ुद पूरा मैदे के घोल से गंदा हो गया। उसे सूझ नहीं पड़ रहा था कि अब क्या करे ? अपने केक को कैसे पकाए क्योंकि उसे तो गैस जलाना या ओवन चालू करना भी नहीं आता था। इतने में ही उसकी बिल्ली बर्तन पर झपटी और घोल को नीचे गिरा दिया। बंटी घबरा कर रोने लगा और अपने कपड़ो से घोल साफ़ करने लगा।<br /><br />वह कुछ अच्छा करना चाहता था पर सब उल्टा-पुल्टा हो रहा था। तभी उसके पापा वहॉं आ कर उसे देखने लगे। उन्होंने धीरे से आकर अपने रोते हुए बेटे को गोद में उठाया, उसे सीने से लगाया और प्यार से पुचकारने लगे। पापा के कपड़ों पर भी घोल की चिपचिपाहट साफ़ नज़र आ रही थी।<br /><br />ईश्वर भी हमारे साथ कुछ ऐसा ही करता है। हम जीवन में कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर कई बार सारा काम बिगड़ जाता है। शादीशुदा लोगों के दाम्पत्य में कभी चिपचिपाहट हो जाती है और कभी हम किसी दोस्त की बेइ़ज़्ज़ती कर बैठते हैं। कभी हमारी नौकरी ख़तरे में पड़ जाती है तो कभी स्वास्थ्य साथ नहीं देता है। ऐसे में हम आँखों में आँसू भरे चुपचाप खड़े रहते हैं क्योंकि हमें समझ में नहीं आता कि दरअसल हम क्या करें। यही वक़्त होता है जब एक अदृश्य शक्ति जिसे हम ईश्वर या अल्लाह कहते हैं; हमें थामता है और हमें दुलार कर, हमारी भूलों को क्षमा कर खड़े रहने की शक्ति देता है। हमारी सारी गंदगी और चिपचिपाहट ईश्वर स्वयं ले लेता है। सिर्फ़ इस डर से कि हम गंदे हो जाएंगे या अस्त-व्यस्त हो जाएँगे, हम "केक' बनाने की कोशिश नहीं छोड़ सकते। अपनों के लिए हमारी यह कोशिश जारी रहनी चाहिए। कभी न कभी तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी और तब हमें कम से कम यह संतोष तो रहेगा कि हमने प्रयास किया।<br /><br />याद यही रखना है कि - 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।'</div><br /><div><br />(मेरे आत्मीय श्री एस.नंद के परिपत्र स्वयं उत्थान से साभार ) </div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-57377562203047179282008-12-29T19:49:00.002+05:302008-12-29T19:58:11.342+05:30हमारी ख़ुशी का रिमोट दूसरों के हाथ में है<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPlni_KrGLCV_UXb9ZaNgInmnyrCKrK9YKgxVDFVmiSxZU5FLcQqzmjc1Qteyp6ixX0QeIXGBjg3j2rNCNcxp-guG8BUVATjliZOYUdlRtA5qFIqQsBMHBHrPJhLPoCoUvnMDOIoSztM0B/s1600-h/happiness+article.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5285218215510175842" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 229px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPlni_KrGLCV_UXb9ZaNgInmnyrCKrK9YKgxVDFVmiSxZU5FLcQqzmjc1Qteyp6ixX0QeIXGBjg3j2rNCNcxp-guG8BUVATjliZOYUdlRtA5qFIqQsBMHBHrPJhLPoCoUvnMDOIoSztM0B/s320/happiness+article.bmp" border="0" /></a><br /><div>सच मानिये ...हमारी ख़ुशी और ग़म का रिमोट कंट्रोल हमारे हाथ में न होकर दूसरे के हाथ में है।<br />कोई कुछ अच्छा कह देता है तो हम ख़ुश हो जाते हैं; बुरा कह देता है तो हम दुःखी हो जाते हैं .<br />इस तरह से तो हम किसी और के ग़ुलाम ही हो गए न।<br />ये रिमोट कंट्रोल हम अपने हाथ में ले लें, तो कोई चाहे कुछ भी कहे, हम सिर्फ़ ख़ुश रहेंगे.<br />आप कार ख़रीदते हैं, क्योंकि सोचते हैं कि इससे ख़ुशी मिलेगी...<br />बड़ा मकान ख़रीदते हैं और वहॉं भी यही तमन्ना रखते हैं कि ख़ुशी मिल जाएगी...<br />लेकिन वह मिलती ही नहीं। इसका कारण साफ़ है कि मकान और कार ख़ुशी नहीं देते।<br />इनके विज्ञापन में भी आपको बहुत सी सुविधाएँ लिखी मिल जाएंगी, पर ख़ुशी का कहीं ज़िक्र नहीं होगा।<br /><strong>ख़ुशी न तो ऐसी है कि पैसा देकर ख़रीद लिया जाए और न ही ऐसी<br />कि कोई हमें दे दे, जिससे हम हमेशा के लिए ख़ुश हो जाएँ।<br /></strong><br />कुछ लोग ये मानकर चलते हैं कि बाहर के लोग या वस्तुएँ<br />उन्हें ख़ुशी देंगे, इसलिए वे सुबह से शाम तक हाथ फैलाकर ख़ुशी मांगते रहते हैं,<br />लेकिन जिसके पास वह चीज़ है ही नहीं वह भला कैसे देगा। दरअसल ये ख़ुशी<br />भीतर से तो है किन्तु वहॉं कोई झॉंकने की कोशिश नहीं करता।<br />यदि किसी को कोई दुःख पहुँचा दे तो वह सोचता है कि कोई बाहरी व्यक्ति ही आकर<br />उसे समझाए तब वह समझेगा, लेकिन यदि वह ख़ुद से बात कर ले और समझ ले<br />तो उस दुःख के दूर होने में एक मिनट का समय भी नहीं लगने वाला.<br />जब तुम पर कोई ग़ुस्सा करता है तो तुम ग़ुस्से में उसका जवाब मत दो।<br />दरअसल जो ग़ुस्सा कर रहा है वह उस समय बीमार जैसा है और बीमार से सहानुभूति रखना चाहिए।<br />यदि हम उसके पर ख़ुद भी ग़ुस्सा हो गए तो फिर हम उसके ग़ुलाम हो गए।<br />उन्होंने कहा कि ग़ुस्सा और ख़ुशी ऐसे हैं कि दोनों साथ नहीं रह सकते।<br />यदि ग़ुस्सा है तो ख़ुशी ग़ायब है और ख़ुशी है तो ग़ुस्सा ।</div><br /><br /><div><br /><strong>यह ऑप्शन हमारे पास है कि हम ग़ुस्सा करें या ख़ुश रहें...<br />यदि चाहते हैं ख़ुश रहना तो ग़ुस्सा छोड़ दें, दूसरों के कहे से प्रभावित न हों,<br />यदि किसी की बात बुरी भी लग जाए तो आप ख़ुद ही अपने को समझाएँ...<br />दूसरों का इंतज़ार न करें।</strong></div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-38873683327470807452008-11-14T19:26:00.000+05:302008-11-14T19:31:28.813+05:30किसी के दिल में ख़ुशी की गर्माहट भर दीजिए<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimptcY9lOuTA-eHSyXx6HFdotUrw3yMVV5vYscm6T-McLQIZce1MnZ3YSR-xcokESHe3dxAvSfgKBvXaFuAvyAQ7zaSeDAkrEioYfRqWBM3JYNya7STndheaViKyHAr5MLdFryHKis-f9L/s1600-h/boy+and+teacher.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5268512714090955970" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 319px; CURSOR: hand; HEIGHT: 313px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimptcY9lOuTA-eHSyXx6HFdotUrw3yMVV5vYscm6T-McLQIZce1MnZ3YSR-xcokESHe3dxAvSfgKBvXaFuAvyAQ7zaSeDAkrEioYfRqWBM3JYNya7STndheaViKyHAr5MLdFryHKis-f9L/s320/boy+and+teacher.jpg" border="0" /></a><br /><div><br />स्कूल के पहले ही दिन जब वो पॉंचवी कक्षा के बच्चों के सामने खड़ी थीं, उन्होंने असत्य का सहारा लिया। अन्य शिक्षिकाओं के समान उन्होंने भी बच्चों की ओर देख कर कहा कि वो सभी को समान रूप से प्यार करती थीं जबकि यह संभव नहीं था। कारण था, उनके सामने पहली पंक्ति में अस्त-व्यस्त बैठा, एक छोटा सा लड़का, जिसका नाम टैडी स्टॉडर्ड था।<br /><br />टीचर श्रीमती थॉम्पसन ने पिछले वर्ष भी टैडी को देखा था और यह पाया था कि वो अन्य बच्चों के साथ घुलता-मिलता था, और उसके कपड़े मैले-कुचले रहते थे और अक्सर यही लगता था कि वो कई दिनों से नहाया नहीं था। इतना ही नहीं, कई बार तो उसका व्यवहार बहुत ख़राब और चिड़चिड़ा होता था। स्थिति यहॉं तक आ पहुँची कि टैडी की नोटबुक में लाल स्याही से काटा-पीटी कर उसे शून्य अंक देने में श्रीमती थॉम्पसन को आनंद की अनुभूति होने लगी। जिस स्कूल में श्रीमती थॉम्पसन पढ़ाती थीं, वहॉं बच्चों का पुराना रेकार्ड देखकर उसकी समीक्षा करनी होती थी, और टैडी की फाइल देखने के लिए उन्होंने अंत तक टालमटोली की और आख़िरकार जब उन्होंने फ़ाइल देखी, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।<br /><br />टैडी की पहली कक्षा की टीचर ने लिखा था, "टैडी बहुत ही ख़ुशमिजाज़ और होनहार बच्चा है। वो सफ़ाई से काम करता है और अच्छे आचरण वाला है। उसके साथ हमेशा ख़ुशी मिलती है।' दूसरी कक्षा की टीचर ने लिखा, "टैडी एक श्रेष्ठ विद्यार्थी है जिसे सभी सहपाठी पसंद करते हैं। उसकी मॉं गंभीर बीमारी से जूझ रही है, शायद इसीलिए लगता है कि उसके घर की परिस्थिति संघर्षमय होगी।' तीसरी कक्षा की टीचर ने टिप्पणी की, "टैडी अपनी मॉं की मौत से हिल गया है। वह बहुत मेहनत करने की कोशिश करता है परन्तु उसके पिता उसमें दिलचस्पी नहीं लेते। वह बहुत मेहनत करने की कोशिश करता है परन्तु उसके पिता उसमें दिलचस्पी नहीं लेते। उसकी पारिवारिक ज़िंदगी का बुरा असर उस पर पड़ेगा, यदि जल्द ही कुछ कदम नहीं उठाए गए।' चौथी कक्षा की टीचर का कथन था, "टैडी कहीं खो गया है और स्कूल में उसे ख़ास रूचि नहीं रही। उसके कोई दोस्त नहीं हैं और वो कक्षा में सोने लगा है।'<br /><br />सारी टिप्पणियॉं पढ़कर श्रीमती थॉम्पसन को टैडी की वास्तविक समस्या समझ में आई और उन्हें ख़ुद पर शर्म आने लगी। उनका मन और दुःखी हुआ जब कक्षा के बच्चे उनके लिए क्रिसमस के ख़ूबसूरत तोहफ़े लाए जो रंगबिरंगे काग़ज़ों में लिपटे और आकर्षक रिबन्स से बंधे थे। अपवाद था तो सिर्फ़ टैडी जिसका उपहार एक साधारण से काग़ज़ से ख़राब तरीके से बांधा गया था। श्रीमती थॉम्पसन ने उपहारों के ढ़ेर से टैडी को उपहार सबसे पहले उठाया जिसका भौंडापन देख कक्षा के सभी बच्चे ज़ोर से हॅंसने लगे। उपहार के बक्से में रंगीन पत्थरों का एक हार था जिसके कुछ पत्थर गायब थे। साथ ही पऱफ़्यूम की एक बोतल थी जिसमें एक चौथाई पऱफ़्यूम बचा था। श्रीमती थॉम्पसन ने बच्चों को डॉंट कर चुप किया और कहा कि वो हार वाकई बहुत सुन्दर था। उन्होंने न केवल हार को पहन लिया बल्कि थोड़ा पऱफ़्यूम भी लगाया। उस दिन टैडी स्टॉडर्ड बहुत देर तक स्कूल में रूक कर उस क्षण का इन्तज़ार करता रहा जब उसने अपनी टीचर से कहा, "श्रीमती थॉम्पसन, आज आपमें से मुझे वही ख़ुशबू आई जो मुझे मेरी मॉं के पास से आती थी।' यह सुनने के बाद, जब बच्चे चले गए तो श्रीमती थॉम्पसन फूट-फूट कर रोने लगीं और बहुत देर तक चुप न हो सकीं। उसी दिन से उन्होंने लिखना, पढ़ना, गणित या भूगोल सब छोड़ दिया और ’बच्चों को पढ़ाना' अपना लिया। अब टैडी की ओर उनका विशेष ध्यान रहता।<br /><br />श्रीमती थॉम्पसन का साथ एवं ध्यान मिला तो टैडी का मस्तिष्क जागृत होने लगा। जितना वो टैडी को प्रोत्साहित करतीं उतना ही वो तीक्ष्ण होता जाता। साल ख़त्म होते-होते टैडी अपनी कक्षा के सबसे मेधावी छात्रों में अव्वल रहने लगा। श्रीमती थॉम्पसन का यह झूठ कि वो सब बच्चों का एक समान चाहती हैं, झूठ ही बना रहा क्योंकि वे टैडी को विशेष रूप से प्यार करती थीं।<br /><br />एक साल बाद टीचर को टैडी का लिखा एक नोट मिला जिसमें उसने लिखा था कि अपनी पूरी ज़िंदगी में उसे श्रीमती थॉम्पसन से अच्छी टीचर नहीं मिलीं। और छह वर्ष गुज़र गए जब टैडी का ख़त उन्हें मिला। लिखा था कि उसने हाई - स्कूल की परीक्षा तीसरे नंबर पर रहते हुए पास कर ली थी, और श्रीमती थॉम्पसन ही उसके जीवन की सर्वश्रेष्ठ टीचर थीं। इसके चार वर्षों पश्चात टैडी ने अपनी प्यारी टीचर को पुन: लिखा कि उसका जीवन कठिनाईयों में बीता पर उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी और वह शीघ्र ही कॉलेज से विशेष योग्यता प्राप्त स्नातक बनने वाला था और अब तक श्रीमती थॉम्पसन से श्रेष्ठ टीचर उसने नहीं देखी। वे सर्वश्रेष्ठ भी थीं और टैडी की सबसे अधिक पसंदीदा टीचर भी। फिर चार वर्ष बीते, और एक पत्र टीचर के नाम। लिखा था कि उसे उपाधि मिल गई थी पर वह और पढ़ना चाहता था। श्रीमती थॉम्पसन से अच्छी कोई टीचर अब भी नहीं थीं।हाँ टैडी के नाम में अब एक अंतर नाम का आ गया था.... अब वह जाना जाता है थियोडोर एफ़.स्टॉडर्ड, एम.डी.; के नाम से.<br /><br />कहानी यहॉं समाप्त नहीं हुई। एक और पत्र उस वर्ष वसन्त ॠतु में टैडी ने लिखा। यह कि उसे एक लड़की से प्यार हो गया था और उन्होनें शादी करने का फैसला कर लिया है। उसने लिखा कि कुछ समय पूर्व उसके पिताजी की मृत्यु हो गई थी और श्रीमती थॉम्पसन से निवेदन किया कि क्या वो विवाह संस्कार में उसकी मॉं के लिए सुरक्षित स्थान पर बैठ सकती थीं ? निःसंदेह श्रीमती थॉम्पसन टैडी की शादी में सम्मिलित हुईं। विशेष बात यह थी कि समारोह में उन्होनें टैडी द्वारा सालों पूर्व भेंट में दिया रंगीन पत्थरों का हार पहना तथा वो ही पऱफ़्यूम लगाया जिसकी ख़ुशबू टैडी के दिलोदिमाग में बसी थी।<br /><br />टैडी और श्रीमती थॉम्पसन एक-दूसरे से चिपट गए और टैडी ने उनके कानों में धीरे से कहा, "मुझमें इतना विश्वास दिखाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, मॉं। इसलिए भी धन्यवाद आपने मुझे मेरा महत्व समझाया और यह हिम्मत दी कि मैं भी जीवन में कुछ कर सकता हूँ।" आँखों से बहती अश्रुधारा के साथ श्रीमती थॉम्पसन बोलीं, "तुम गलत कह रहे हो, टैडी। वह तुम ही थे जिसने मुझे सिखाया कि मैं कुछ बदलाव ला सकती हूँ। जब तक तुमसे नहीं मिली थी, मुझे पढ़ाना आता ही कहॉं था ?<br /><br /><br />इस प्यारी सी कहानी को पढ़ते-पढ़ते आँखें नम हो जाती हैं।<br /><br /><em>मित्रों, आज ही किसी के दिल में खुशी की गर्माहट भर दीजिए..... यह संदेश औरों तक पहुँचाइए.... किसी की ज़िंदगी में आज कुछ फ़र्क़ लाइए, कल कुछ बदलाव लाइए। दिल से किए गए उदारता के छोटे-छोटे कार्य जीवन में अमिट छाप छोड़ते हैं।</em><br /><br /><strong>आपको भी तो मिला है एक उदार दिल !</strong><br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">आपकी जानकारी के लिए विशेष:</span></strong><br /><br /><strong><em>-टैडी स्टॉडर्ड डेस्मॉइन्स के आयोवा मेथॉडिस्ट में डॉक्टर हैं जहां पर स्टॉडर्ड कैंसर विंग की स्थापना की गई है।<br /><br />-यह नीतिकथा प्रसन्नता बाँटने वाले मैनेजमेंट सलाहकार श्री एस.नंद के संस्थान स्वयं उत्थान के परिपत्र से साभार</em></strong><br /></div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-38669645584907526402008-10-11T21:30:00.000+05:302008-10-11T21:30:01.435+05:30कॉंच की बरनी और दो कप चायजीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, तब कुछ तेज़ी से पा लेने की इच्छा होती है और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा हमें याद आती है। दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाई एक कॉंच की बड़ी बरनी (जार)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5uAl1RfcbSTMjziAHeOCWDS3fraApGzJcneTM860GcABAgrQRQfUgWEWTN0zyycT8CIKhTqUiCMDumNEn2Ltbk_wkwzHoqZm64wvAfhVBsP3gvzms2j8L7x3yRD3uypJww5jWsVYVFt2r/s1600-h/glass+jar.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5255539267553277490" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5uAl1RfcbSTMjziAHeOCWDS3fraApGzJcneTM860GcABAgrQRQfUgWEWTN0zyycT8CIKhTqUiCMDumNEn2Ltbk_wkwzHoqZm64wvAfhVBsP3gvzms2j8L7x3yRD3uypJww5jWsVYVFt2r/s200/glass+jar.bmp" border="0" /></a> टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदे डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ... आवाज़ आई.. फिर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरू किये। धीरे धीरे बरनी को हिलाया तो जहाँ जहाँ जगह थी वहाँ काफ़ी कंकर समा गए.फिर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भई गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हॉं कहा . अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरू किया। वह रेत भी उस जार में जहॉं संभव था बैठ गई। अब छात्र अपनी नादानी पर हॅंसे... फिर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी गई ना ? हॉं... अब तो पूरी भर गई है। सभी ने एक स्वर में कहा। <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAUrUTcmpEsrIv9p5caW4dO-orkOCwr2ZhxNBaY95pvbAh3ztHqrCAGpjcQOPIduMQschyo4M4VNIOfdwQa2dIAmaD5S-sZ0RSiwunMHUWQWJqJsWisLRfKtWrgxURTpqDIkN8Llwdp3WF/s1600-h/mugs.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5255539488579441538" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAUrUTcmpEsrIv9p5caW4dO-orkOCwr2ZhxNBaY95pvbAh3ztHqrCAGpjcQOPIduMQschyo4M4VNIOfdwQa2dIAmaD5S-sZ0RSiwunMHUWQWJqJsWisLRfKtWrgxURTpqDIkN8Llwdp3WF/s200/mugs.jpg" border="0" /></a>सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकाल कर जार में चाय डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोड़ी सी जगह में सोख ली गई। प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज़ में समझाना शुरू किया। इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो। टेबल टेनिस की गेंदे सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात् भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं। छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बड़ा मकान आदि हैं। और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगड़े हैं। अब यदि तुमने कॉंच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदे नहीं भर पाते, रेत ज़रूर आ सकती थी। ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा। मन के सुख के लिये क्या ज़रूरी है ये तुम्हें तय करना है।<br /><br />अपने बच्चों के साथ खेलो, बग़ीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ। घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फेंकों, मेडिकल चेक-अप करवाओ। टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है। पहले तय करो कि क्या ज़रूरी है। बाकी सब तो रेत है। छात्र बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप' क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले... मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया। इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे लेकिन अपने ख़ास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये।<br /><br />अपने ख़ास मित्रों और निकट के व्यक्तियों को यह विचार तत्काल बॉंट दो। मैंने अभी-अभी यही किया है।शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-64526764005473102182008-04-27T16:30:00.000+05:302008-04-27T17:26:32.462+05:30आपके ह्र्दय-द्वार पर....दिनकर सोनवलकर<strong><em>न जाने क्या बात है कि हमारा मालवा अपनी गुदड़ी के लालों को वह मान देता ही नहीं जिसके वो अधिकारी होते हैं.ऐसे ही एक सु-कवि <span style="color:#ff0000;">दिनकर सोनवलकर</span> आज शब्द-सृष्टि की जाजम पर पधारे हैं । सोनवलकरजी ने हिन्दी ग़ज़ल पर भी लाजवाब काम किया है (जिसे नीरज जी गीतिका कहते हैं )मराठी के यशस्वी कवियों के अनुवाद भी सोनवलकरजी ने किये है।कुछ बेहतरीन गीत आकाशवाणी इन्दौर से प्रसारित हुए हैं.दो रचनाएं पढ़िये और महसूस कीजिये इस विलक्षण क़लमकार की कारीगरी को.ये रचनाएं १९७० यानी अब से ३८ बरस पहले हिन्दी की आदरणीय पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुईं थीं...</em></strong><br /><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">एक सूचना...</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;"></span></strong><br />कला के इस मंदिर में<br />झुककर प्रवेश कर.<br />इसलिये नहीं कि<br />प्रवेशद्वार छोटा है ?<br />और तेरी ऊँचाई से<br />टकरा कर टूट जाएगा .<br />नहीं !<br />आकाश ही उसका द्वार है...विराट<br />यहाँ बौने ही लगेंगे तेरे ठाठ-बाट.<br />इंसानियत के आगे झुकना<br />सबसे बडी़ कला है<br />उन्ही को कर प्रणाम<br />इसी में छुपे हैं....<br />रहीम और राम।<br /><br /><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">परंपरा बोध.....</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;"></span></strong><br />मुझे क्या ज़रूरत है<br />विदेशी स्टंटों से चमकृत होने की ?<br />जिसकी हों अपनी जड़ें,वही औरों के भरोसे जिये.<br />क्या बताएगा गिन्सबर्ग मुझ कबीर पंथी को ?<br />पहले कह गया है गुरू हमारा<br />जो घर फ़ूँके आपनो सो चले हमारे साथ<br />तुम पहनो अपने तन पर<br />उधार ली हुई फ़ाँरेनमेड पोषाकें<br />हम तो जन्म से ही नंगे हैं..नंगे अवधूत<br />मर्लिन मूनरो या मारिज़ुआना<br />दोनों हदों से बेहद हो चुके हैं हम .<br />'हम न मरिहै संसारा'<br />बीटनिक,बीटल्स या हिप्पी,सभी हैं माया का पसारा.<br />इस ठगिनी को खू़ब जानते हैं हम .<br />तुम नये जीवन-दर्शन के नाम पर<br />बडी़ पुरानी विकृतियों को उछालत हो<br />रचते रहो आँप या पाँप<br />हम तो बस चुपचाप<br />ज्यों की त्यों धर देते हैं चदरिया<br />विद्रोह को पतिक्षणं जीते हुए !<br /><br /><strong>-दिनकर सोनवलकर</strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-69495896263957222532008-04-01T00:33:00.000+05:302008-04-01T00:37:39.210+05:30ऐसा लगता है कोई मुझसे बडा है मुझमें… कृष्ण बिहारी नूर की एक उम्दा ग़ज़लनूर साहब उर्दू शायरी का एक बडा नाम रहे हैं।<br />इश्क और मुश्क है ऊपर उठकर अपनी शायरी के ज़रिये<br />पाठक को एक रूहानी लोक की सैर करवाने वाले इस अज़ीम शायर<br />की ये लाजवाब ग़ज़ल आपकी नज़्र<br /><br /><strong><span style="color:#003300;">आग है पानी है,मिट्टी है,हवा है मुझमें<br />और फ़िर मानना पडता है ख़ुदा है मुझमें<br /><br />जितने मौसम हैं,वो सब जैसे कहीं मिल जाएं<br />इन दिनों कैसे बताऊं जो फ़ज़ाँ है मुझमें<br /><br />टोक देता है क़दम जब भी ग़लत उठता है<br />ऐसा लगता है कोई मुझसे बडा है मुझमें<br /><br />आईना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन<br />आईना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें</span></strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-40691454299546348632008-03-03T20:34:00.000+05:302008-03-03T20:48:04.246+05:30मानव से क्षुद्र वस्तु की अपेक्षा करना उसका अपमान है !<strong>विश्वकर्मा</strong> जब सृष्टि का निर्माण कर चुके तो उन्होने फूल को आदेश दिया...<br />तू सदैव सौरभ फ़ैलाते रहना।<br /><br /><br /><strong>आकाश</strong> में घूमने वाले मेघ से उन्होंने कहा...पवन तेरा रथ है , व्योम-मंडल तेरा विहार-पथ है; पर तेरा काम है प्यासी धरती की प्यास बुझाना।<br /><br /><strong>वृक्ष </strong>से उन्होंने कहा...भीषण ग्रीष्म को मस्तक पर सहकर भी तू प्राणियों को सदा छाया देना और तेरे पुष्प तथा फ़ल की सम्पत्ति मानव-समाज को समर्पित करना।<br /><br /><strong>नदी </strong>को उन्होंने आदेश दिया ...तू कल-कल स्वर में गाती रहेगी पर तुझे प्यासे प्राणियों की प्यास बुझानी है !<br /><br /><strong>केवल मानव के संबंध में विश्वकर्मा के आदेश विचित्रता से भरे थे...</strong>उन्होंने उसे दु:ख दिया ताकि इस दु:ख में से वह सुख के कण खोज निकाले।उसे अंधकार दिया ताकि वह अंधेरे के बीच पथ का निर्माण कर सके।मानव को मृत्यु दी और उससे अपेक्षा की गई कि वह मृत्यु में से अमरताकी राह चुने, असत से सत की राह अपनाए.<br /><br />यह इतना बड़ा बोझ <strong>मानव </strong>के ही कंधों पर ही डाला गया क्योंकि<strong> वह विश्वकर्मा की श्रेष्ठ कृति है</strong> और फ़िर एक वीर से कीड़ा मारने को कहना उसका अपमान ही तो है न ? मानव से क्षुद्र वस्तु की अपेक्षा करना उसका अपमान ही तो होता !<strong> विश्वकर्मा को विश्वास था कि मेरा लाड़ला मनुष्य सब-कुछ कर सकेगा। </strong><br /><strong></strong><br /><em>(इन्दौर के आध्यात्मिक आस्था केंद्र <strong>श्री गीता भवन</strong> की स्वर्ण - स्मारिका पर हाल ही में प्रकाशित स्मारिका <strong>स्वर्ण - गीत</strong> से साभार, इसका रूपांकन मेरे संस्थान एडराग कीक्रिएटिव टीम ने किया है:</em><br /><em><a href="http://www.adraag.com/">www.adraag.com</a>)</em>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-87221001674366700512007-09-18T23:47:00.000+05:302007-09-19T00:05:14.039+05:30अपनी अहमियत न जताएँ...दुनिया आपके बग़ैर भी चलेगी<em>दुनिया और ज़िन्दगी को एक अनुशासन में लाना ही पड़ता है.पढ़ने और सोचने के बाद यथार्थ से भरे कुछ शब्द ज़हन में उभरे हैं ....आपके साथ बाँट रहा हूँ</em><br /><br />- अहंकार को घटाओ...सब कुछ उस ऊपर वाले का बनाया हुआ है....आपका नहीं.<br /><br />- अपनी अहमियत न जताएँ..कोई है जो इस जगत को बहुत ख़ूबसूरती से संचालित कर रहा है<br /> आपके होने के पहले भी दुनिया थी..... आपके बगै़र भी दुनिया चलेगी.<br /><br />- पूरे जगत के बारे में सोचें...थोड़ा कम स्वार्थी होकर तो देखिये.<br /><br />- सादा जीवन बसर करें.निसर्ग को नुकसान न पहुँचाएँ...ये आपका बनाया हुआ नहीं है...आप इसे <br /> बिगाड़ने वाले कौन होते हैं.<br /><br />- दुनिया को वैसा ही देखिये जैसी वह है...उसे अपने हिसाब से ढ़ालने की कोशिश न करें ; नाक़ाम हो<br /> हो जाएँगे. समय अपने हिसाब से चल रहा है...चलता रहेगा...परिस्थियों के साक्षी बनें..न्यायाधिपति<br /> नहीं.<br /><br />- आपको लगता है दु:ख आपके हवाले कर दिया गया है; सुख दूसरों के खाते में जमा हो गया है ;<br /> आप ग़लत सोचते हैं. ये तयशुदा फ़िल्म है हुज़ूर बस देखते जाइये...एक क़िरदार बने रहिये..उससे<br /> संघर्ष मत कीजिये.. ज़रा ग़ौर कीजिये आपका दु:ख दूसरों से कम है...इस बात की ख़ुशी तो मनाइये.<br /><br />- और अंत में.....जान लीजिये कि मृत्यु ही एकमात्र चीज़ है जो सुनिश्चित है..आप सबकुछ अपने<br /> से तय कर सकते हैं बस मृत्यु नहीं...वह सुनिश्चित है ...लेकिन कब ? यह अनिश्चित है.तो जो<br /> सुनिश्चित है वही दैवीय है...उसकी आनंदपूर्वक प्रतीक्षा कीजिये.शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-89242333378965249972007-08-24T05:50:00.000+05:302008-11-19T03:02:20.016+05:30आत्मा रूपी रजिस्टर में हमारे सब दोष और दुष्कर्म दर्ज़ हो जाते हैं.<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSWxwpWNriAJ4FXNtdjuzMP7BIkIHl1vScK6Lutz1CAf8kJh7Iw8tTR9tZs3x0Pq477vSpq10pzVKqNi-4N0l67QRpxSzC6Ix3q10Z7JpnyUTKsD1RchGgsPxZETHjRvQ3TxzOaLf9-KtD/s1600-h/dr.apj+abdul+kalam.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5102066579620163618" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSWxwpWNriAJ4FXNtdjuzMP7BIkIHl1vScK6Lutz1CAf8kJh7Iw8tTR9tZs3x0Pq477vSpq10pzVKqNi-4N0l67QRpxSzC6Ix3q10Z7JpnyUTKsD1RchGgsPxZETHjRvQ3TxzOaLf9-KtD/s320/dr.apj+abdul+kalam.jpg" border="0" /></a><br /><div><strong><span style="font-size:130%;">हिन्दी में डाँ कलाम रचित आकर्षक शब्द उपहार....</span></strong><br /><br />पूर्व राष्ट्रपति भारतरत्न डाँ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने राष्ट्राध्यक्ष से ज़्यादा एक चिंतक के रूप में देशवासियों अधिक मोहा है. हिन्दी में प्रकाशित उनकी पुस्तकों को पाठकों ने शानदार प्रतिसाद दिया है. <strong>प्रेरणात्मक विचार</strong> नाम से डाँ.कलाम रचित एक आकर्षक शब्द उपहार देखने में आया. 6 X 4 इंच के लगभग आर्ट पेपर के सुन्दर से आवरण से सज्जित पुस्तक में बिना किसी भूमिका के चार पंक्तियों में सुरभित मन को छू लेने वाली सूक्तियाँ संकलित की गईं हैं. राष्ट्र-प्रेम,तकनालाँजी,शिक्षा,सुनहरा भविष्य, समाज,संगीत,बच्चे डाँ कलाम के चिंतन का स्थायी स्वर रहे हैं सो ये सुविचार भी इसी के इर्द-गिर्द हैं.<strong>अच्छा मशवरा माननेवालों के लिये बता दूँ कि यह प्रकाशन शुभ-प्रसंगों में भेंट किये जाने वाले 101/- लिफ़ाफ़े से बेहतर है.</strong> इसी संकलन से संचय किये गए सुविचारों की बानगी :<br /><br /><strong>- जीवन का महत्व इस बात में है कि खु़द क़ामयाबी हासिल करने से अधिक हम दूसरों को </strong><br /><strong>क़ामयाबी हासिल करने में मददगार हो.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- शिक्षक का जीवन अनेक जीवन को सँवारता है.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- अनदेखे,अनजान रास्तों पर चलने के लिये सदैव तैयार रहना चाहिये.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- हमारा सपना है ऐसे देश का निर्माण ,,जिसमें प्रत्येक देशवासी के चेहरे पर </strong><br /><strong>मधुर मुस्कान हो.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- बचपन में दी गई शिक्षा , संस्कार और नैतिकता किसी काँलेज और यूनिवर्सिटी में मिली </strong><br /><strong>औपचारिक शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण होती है.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- शरीर-रूपी मंदिर को आत्मा - रूपी दीपक ही प्रकाशित करता है.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- आत्मा-रूपी रजिस्टर में हमारे सब दोष और दुष्कर्म दर्ज़ हो जाते हैं.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- नेक और ईमानदार व्यक्ति ही अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- लेखक समाज की आत्मा के प्रहरी हैं.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>- प्रश्न करते रहिये और उनके उत्तर खोजते रहिये...समय आने पर उत्तर मिलेंगे ही;</strong><br /><strong>और समस्याओं का समाधान भी होगा .</strong><br /><br />104 पेज का ये शब्द संचयन दो रंगों में बहुत सादा लेकिन सुरूचिपूर्ण तरीक़े से <strong>राजपाल एण्ड संस</strong> ने प्रकाशित किया है. सारी सूक्तियाँ मन को छूती हैं. प्रत्येक पृष्ठ पर वाँटर मार्क के रूप में कलात्मक चित्र भी हैं जो इन सूक्तियों को पढ़ते वक़्त आँखों को सुकून देते हैं. हिन्दी के प्रसार और प्रचार में भी डाँ.कलाम का यह शब्द संचय महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा क्योंकि छोटी छोटी पंक्तियों में रचे गए ये अग्नि मंत्र वाक़ई प्रेरणास्पद तो हैं ही साथ अंग्रेज़ीदाँ युवा पीढ़ी हमारी राष्ट्र-भाषा की ओर भी ले जाते हैं.हिन्दी मे निश्चित ही ऐसे प्रकाशनों की आवश्यकता है जो उपदेशात्मक न होते हुए आपसे बतियाते हुए नज़र आएँ और पढ़ते ही दिन भर आपके मन-मस्तिष्क में स्पंदित होते रहें.</div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-23193030331144454192007-08-15T23:31:00.000+05:302008-11-19T03:02:20.278+05:30दो अलग बातें हैं<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgobxVudJZQs5dlviJoKBDQg-66E63XGMfyc3-YxL8rmm7Ix7jC70X4ydbarNr8dyreVrg9Rh55bjCXpomP09aPmqknycHXDKe4XQ5OGfxzfTASLauy9Gh6d_ki1p1SobafAY3lE0XJgJKM/s1600-h/two+fingers+of+win.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5098991273736845474" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgobxVudJZQs5dlviJoKBDQg-66E63XGMfyc3-YxL8rmm7Ix7jC70X4ydbarNr8dyreVrg9Rh55bjCXpomP09aPmqknycHXDKe4XQ5OGfxzfTASLauy9Gh6d_ki1p1SobafAY3lE0XJgJKM/s320/two+fingers+of+win.jpg" border="0" /></a><br /><div>किसी व्यक्ति को आदर देना और उसके लिये मन में आदर होना.....दो अलग बातें हैं.</div><br /><div></div><br /><div>संस्कारों की दुहाई देना और वक़्त आने पर उस पर चलना उतरना.....दो अलग बातें हैं</div><br /><div></div><br /><div>मीठे शब्द बोलना और वैसा आचरण करना.....दो अलग बातें हैं</div><br /><div></div><br /><div>किसी से सहमत होने का अभिनय करना और उसकी बात का अनुसरण करना.....दो अलग बातें हैं.</div><br /><div></div><br /><div>क्रोध पी जाता हूं मै ऐसा कहना और वाक़ई क्रोध पी जाना.....दो अलग बातें हैं.</div><br /><div></div><br /><div>महान विभूतियों का जीवन-चरित पढ़ना और वैसा बनना.....दो अलग बातें हैं</div><br /><div></div><br /><div>उदारता की बातें करना और उदार होना.....दो अलग बातें हैं</div><br /><div></div><br /><div>प्रगतिशीलता पर चलने सीख देना और प्रगतशील होना.....दो अलग बातें हैं.</div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-64335727839265017392007-08-08T05:21:00.000+05:302007-08-08T05:27:20.894+05:30छोटी छोटी बातों में ही तो छुपा है जीवन सार-हमारी सबसे बड़ी शान गिरने में नहीं ...हर बार गिर कर उठ खड़े हो जाने में हैं.<br /><br />-मधुर शब्द शहद के समान है .आत्मा के के लिये मधुर और देह के लिये स्वास्थ्यवर्धक.<br /><br />-बुध्दि परीक्षण करने बैठती है किन्तु विवेक निरीक्षण में ही खु़श रहता है.<br /><br />-जिन्हें सबसे कम कहना होता है..वही सबसे ज़्यादा बोलते हैं.<br /><br />-विरोधी ही सबसे बडा़ पथ-प्रदर्शक और अंतत: शुभ-चिंतक साबित होता है.<br /><br />-अतीत पर क्रोध और भविष्य के भय में पूरा जीवन बीत जाता है<br />जबकि बीतना चाहिये वर्तमान के लिये.<br /><br />-दूसरों की अनुकंपा पर जीने वाला मनुष्य भिखारी के समान नहीं..भिखारी ही है.<br /><br />-विस्तार में हाहाकार है...समेटने में सार है.<br /><br />-सहो और बचो.<br /><br />-प्रसन्न रहना चाहते हैं ? दूसरों से अपेक्षा मत करो...दूसरों की अपेक्षा को पूरा करो.<br /><br /><em><strong>-उस निराकारी ईश्वर को दिन में एक बार अवश्य धन्यवाद दो जिसने आज का दिन सुदिन बना दिया..हमें स्वस्थ रखा..मानसिक रूप से चैतन्य रखा और किसी के लिये मन में शुभ-विचार लाने के लिये प्रेरित किया.इति शुभम.</strong></em>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-74607637767701763682007-07-24T19:43:00.000+05:302008-11-19T03:02:20.890+05:30जो दिया सो अपना...जो बचा लिया सो सपना<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifRN7I9kgLfAyQUBC9UyYzXhVDLYO8rRlHi9GHqzifIslS5kqMTJTK4CvAnPmK4nF_O8RlX3evcCH5fhJXKseAGqPM-tapM-j072Se2qeHqc6_BZRWRa35rcsh0HvuKxGmZD_00B3AKQUi/s1600-h/coins.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5090773669859735698" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifRN7I9kgLfAyQUBC9UyYzXhVDLYO8rRlHi9GHqzifIslS5kqMTJTK4CvAnPmK4nF_O8RlX3evcCH5fhJXKseAGqPM-tapM-j072Se2qeHqc6_BZRWRa35rcsh0HvuKxGmZD_00B3AKQUi/s320/coins.bmp" border="0" /></a><br /><div><span style="color:#000000;"><strong>एक नौजवान, जो कि विश्वविद्यालय का छात्र था, एक शाम अपने प्रोफ़ेसर के साथ पैदल घूमने निकला। प्रोफ़ेसर अपने छात्र-छात्राओं से मित्र जैसा व्यवहार करते थे और अपनी सहृदयता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे। चलते-चलते दोनों जंगल में दूर निकल गए। रास्ते में उन्हें पुराने जूतों की एक जोड़ी पड़ी मिली। ये जूते एक ग़रीब किसान के थे जो पास के खेत में काम कर रहा था, और जिसका उस दिन का काम लगभग समाप्त हो चला था। </strong></span><br /><br /><br /><span style="color:#000000;"><strong>नौजवान ने प्रोफ़ेसर से कहा, "आईए सर, हम उस आदमी से मज़ाक करते हैं। उसके जूते कहीं छुपा देते हैं और हम दोनों झाड़ी में छुप जाते हैं। जब जूते नहीं दिखेंगे तो उस आदमी को परेशान होता देख बड़ा आनंद आएगा।' प्रोफ़ेसर ने कहा, "मेरे दोस्त, किसी ग़रीब की भावनाओं से खिलवाड़ करने का हमें कोई हक नहीं। तुम अमीर हो इसलिए तुम्हें ऐसे काम में मज़ा मिल सकता है। मेरी मानो तो ग़रीब आदमी के हर जूते में एक-एक सिक्का रख दो और मेरे साथ छुप कर उसकी प्रतिक्रिया देखो।' नौजवान ने बात मान ली और सिक्के रखकर अपने प्रोफ़ेसर के साथ झाड़ी के पीछे छुप गया। </strong></span><br /><br /><span style="color:#000000;"><strong></strong></span><br /><br /><span style="color:#000000;"><strong>थोड़ी देर बाद ही ग़रीब किसान काम को समाप्त कर अपने जूतों के पास आया। उसने कोट पहना तथा एक जूते में पॉंव डाला। जूते में उसे कुछ अड़ा तो उसने हाथ से टटोला और उसे एक सिक्का मिला। उसके चेहरे पर अचानक आश्चर्य के भाव आए और वह बहुत देर तक सिक्के को हाथ में लेकर उलट-पलट कर देखता रहा। उसने आसपास नज़र दौड़ाई पर उसे कोई भी नहीं दिखा। उसने सिक्के को कोट की जेब में रखा और दूसरा जूता पहनने लगा। एक बार फिर उसे बहुत ताज्जुब हुआ जब दूसरे जूते में भी सिक्का मिला। वह बहुत भावुक हो उठा और अपने घुटनों के बल बैठ गया। उसने आसमान की ओर नज़र की तथा प्रार्थना के स्वर में ईश्वर को धन्यवाद देने लगा। उसने अपनी बीमार एवं लाचार पत्नी तथा घर में भूख से बिलख रहे बच्चों की ओर से ईश्वर का शुक्रिया अदा किया क्योंकि किसी अनजान व्यक्ति द्वारा उसे ज़रूरत के समय यह मदद मिली थी। उस रात उसके बच्चे भूखे नहीं सोने वाले थे और उसकी पत्नी को दवाई भी मिल रही थी। </strong></span><br /><br /><br /><span style="color:#000000;"><strong>नौजवान ने वह दृश्य देखा और बहुत द्रवित हो गया तथा उसकी आँख से आँसू टपकने लगे। प्रोफ़ेसर ने उससे पूछा, "क्या तुम अभी ़ज़्यादा ख़ुश हो या उस समय होते जब तुम उस ग़रीब से मज़ाक करते?' नौजवान बोला, "सर, आज आपने मुझे ऐसा सबक दिया है जिसे मैं जीवनभर नहीं भूलूंगा। मुझे अब इन शब्दों की सच्चाई समझ में आ रही है जो मैं पहले कभी नहीं समझ पाया।</strong></span><br /><br /><br /><br />वे शब्द हैं<strong>,......"पाने से देना अधिक पुण्य का काम है।'</strong><br /><br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">यदि आप ख़ुशी चाहते हैं:</span></strong><br /><br /><strong></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">एक घंटे के लिए..... तो झपकी ले लीजिए</span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;"></span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">एक दिन के लिए..... तो सैर-सपाटे पर निकल जाईए</span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;"></span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">एक माह के लिए..... तो शादी कर लीजिए</span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;"></span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">एक वर्ष के लिए..... तो ढ़ेर सारा धन कमाई</span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;"></span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">कई वर्षों के लिए..... तो किसी से प्यार कीजिए</span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;"></span></em></strong><br /><br /><strong><em><span style="color:#000099;">जीवनभर के लिए..... तो किसी के लिए कुछ कीजिए</span></em></strong><br /><br /><em>(प्रसन्नता बाँटने और उसका प्यार भरा सबक़ सिखाने वाले मैनेजमेंट गुरू श्री एस. नंद के रचनात्मक प्रयास स्वयं उत्थान को उपरोक्त नीति कथा के लिये विशेष आभार)</em></div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-66324665043422044622007-07-19T19:41:00.000+05:302008-11-19T03:02:21.101+05:30मै और मेरा ईश्वर तो जानता है<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmpN3QYPCqNRY0XlLpHbrmGXypc200kAQIddKzj8bVpu8rwaTuKO-6cZ2sbiIPJ7SsyC3FA1Hf4E0BwFrUS6eJbWt5POkKRZKk836SAY4bdL1xiITgcVa-3qHbEEIvk_VXpoEkkyxxNqId/s1600-h/budha+statue.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5088916696356677042" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmpN3QYPCqNRY0XlLpHbrmGXypc200kAQIddKzj8bVpu8rwaTuKO-6cZ2sbiIPJ7SsyC3FA1Hf4E0BwFrUS6eJbWt5POkKRZKk836SAY4bdL1xiITgcVa-3qHbEEIvk_VXpoEkkyxxNqId/s320/budha+statue.jpg" border="0" /></a><br /><div>एक परिसर में एक मूर्तिकार अपने काम में मसरूफ़ था.बना रहा था एक मूर्ति..एक युवक उस परिसर में पहुँचा और मूर्तिकार की कारीगरी देखने लगा.ईश्वर की जो मूर्ति वह कलाकार गढ़ रहा था ठीक वैसा ही शिल्प उस कलाकार से कुछ दूरी पर बनकर तैयार था.</div><br /><div>युवक ने पूछा : क्या एक जैसी दो मूर्तियाँ स्थापित होंगी मंदिर में ? </div><br /><div>कलाकार ने कहा नहीं..</div><br /><div>तो दूसरी मूर्ति क्यों बना रहे हैं आप...? युवक ने प्रश्न किया.</div><br /><div>कलाकार बोला: दर-असल उस मूर्ति की नाक पर एक ख़रोच सी आ गई है..</div><br /><div>युवक का अगला प्रश्न था ..इस मूर्ति को तक़रीबन कितना ऊँचा स्थापित करेंगे आप ?</div><br /><div>कलाकार ने बताया..लगभग 20 फ़ुट ऊपर. </div><br /><div>युवक आश्वर्य से बोला इतनी दूरी पर स्थापित होने के बाद भगवान की नाक पर खरोंच है कौन जानेगा....</div><br /><div>कलाकार ने उत्तर दिया बॆटा..मै और मेरा ईश्वर तो जानेंगे न ?</div><br /><br /><div>ये नीति कथा इस बात की ओर तो इशारा करती ही है कि <strong>हमें अपने कर्म के लिये ईमानदार रहना</strong> चाहिये.....और ये भी कि <strong>हमारे हाथ से हुई ग़लतियों को स्वीकारने की सचाई भी हम में होना ही चाहिये..</strong>क्योंकि <strong>मन की अदालत में अंतत: जुर्म साबित हो ही जाता है</strong>...और हाँ एक बात और कि <strong>हमें अपनी उत्कृष्टता के लिये हमेशा सचेत रहना चाहिये चाहे उसे कोई रेखांकित करे या न करे.</strong></div><br /><div>यहाँ हमें <strong>ख़लील ज़्रिबान</strong> की वह सूक्ति याद हो आती है...</div><br /><div></div><br /><div><strong><em>Top quality emerges from culture of care.</em></strong></div><br /><div></div><br /><div>आमीन.</div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-86627207845901517672007-07-18T20:37:00.000+05:302007-07-18T21:18:08.535+05:30ज़िन्दगी को उजाला देती एक सह्र्दय जैन संत की बानी<strong><em>सवा लाख कि.मी. पद-यात्रा कर चुके,पचपन वर्ष पूर्व दीक्षा ले चुके,बंगाल में जन्मे,नौ भाषाओं के जानकार और स्वामी विवेकानंद को अपनी आध्यात्मिक यात्रा का सर्जक मानने वाले <span style="color:#ff0000;">जैन संत आचार्य पदमसागरसूरीश्वरजी</span> इन दिनो चातुर्मास बेला में मालवा की सांस्कृतिक राजधानी इन्दौर पधारे हुए हैं. वे एक उदभट वक्ता,गूढ़ चिंतक और धर्म के बारे में अत्यंत सह्र्दय दृष्टिकोण रखने वाले सुह्र्द संत हैं...आज ज़माने को दर-असल ऐसे ही मार्गदर्शकों की ज़रूरत है..उनकी वाणी से निकली ये सूक्तियाँ हमारे मानस को वाक़ई एक नये सोच की ओर प्रशस्त करती है.....</em></strong><br />-चैक या ड्राफ़्ट में यदि कोई तकनीकी भूल हो तो बैंक उसे स्वीकार नहीं करती; लौटा देती है. ठीक उसी प्रकार प्रार्थना में पश्चाताप न हो ; संसार की याचना और वासना रूपी तकनीके भूल हो तो वह भी अस्वीकृत हो जाती है.ऐसी कितनी ही प्रार्थनाएं आज तक लौट आईं हैं,उन पर रिमार्क लिखा है...कृपया सुधार कर भेजें.<br /><br />-मौत से न अपने परिजन बचा सकते हैं , न ही अपना मकान.मज़बूत दीवारें भी मौत को नहीं रोक सकती,न चौकीदार हाथ पकड़ सकता है मौत का ! न कोई डाँक्टर हमें मौत के भय से मुक्त कर सकता है और न ही कोई वक़ील मौत के समक्ष स्टे-आँर्डर ला सकता है..जीवन मृत्यु से घिरा है.केवल अध्यात्म चिंतन ही एकमात्र सुरक्षा कवच है.<br /><br />-मै सभी का हूँ; सभी मेरे है; मनुष्य के कल्याण में प्रार्थनारत है मेरी भावनाएं.मै किसी वर्ग,वर्ण,समाज या जाति के लिये नहीं; सबके लिये हूँ.मै ईसाइयों का पादरी,मुस्लिमों का फ़कीर,हिन्दुओं का संन्यासी और जैनियों का आचार्य हूँ..आप जिस रूप में चाहे मुझे देख सकते हैं.<br /><br />- क़ब्र में सोये मुर्दे ने आवाज़ दी...मुझे कौन यहाँ छोड़ गया ?<br />मेरी पास धन-मकान-ज़ेवर सब कुछ तो था ..मुझे यहाँ अकेला कौन छोड़ गया ?<br />वहीं से गुज़रते एक कवि ने उत्तर दिया....<br />सब्र कर..तुझे छोड़ने कोई तेरा दुश्मन नहीं आया था यहाँ.<br />जिनके लिये तूने सब कुछ किया; वही तेरे सगे वाले तुझे यहाँ आकर छोड़ गये हैं.<br /><br />- हिन्दु सच्चा हिन्दु बने और गीता के आदर्शों को अपने जीवन में चरितार्थ करे;<br />मुसलमान पाक मुसलमान बन जाए और क़ुरान की आयतों को ज़िन्दगी में उतारे;<br />जैन वास्तविक जैन बन जाए और महावीर की वाणी का अनुसरण करे;<br />ईसाई खरा ईसाई बने और बाइबल के बतलाए रास्ते पर चल पडे़ ;<br />सब अपने धर्म ग्रंथों को जाँच लें ; कहीं भी अत्याचार,अनाचार,दुर्व्यवहार,<br />की सीख नहीं मिलेगी...मिलेगी प्रेम की बानी...एक बार अपने धर्म-ग्रथों को<br />अविकल पढ़ लीजिये....और फ़िर उस रास्ते पर चलिये...देखिये तो सही;<br />रामराज्य तो क्या स्वर्ग...जन्नत , हैवन ...धरती पर उतरा समझो.शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-90928637067897005102007-07-15T23:20:00.000+05:302007-07-15T23:28:25.030+05:30खुशी बटोरने का ए.टी.एम.<em>हाँ ख़ुशी हमारे लिये आँल टाइम मनी ही होना चाहिये.पाँच प्यारे बिंदु हैं जो आपको इस ए.टी.एम. कार्ड का मालिक बना सकते हैं.ध्यान रखियेगा ख़ुश रहने से ज़्यादा बड़ी करंसी अभी ईजाद नहीं हुई है.</em><br /><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">- अपने ह्रदय को अन्य लोगों की घृणा से दूर रखिये.</span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">- अपने दिमाग़ को तनाव से दूर रखिये</span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">- सादा रहना शुरू कीजिये</span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">- देने में यक़ीन कीजिये</span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;">- कम से कम की अपेक्षा कीजिये.</span><br /><br /><br /><em>कब से शुरू कर रहे हैं...?क्या कहा शुरू कर दिया ..तो हमें भी बताइये न..कैसा महसूस कर रहे हैं.</em>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-17532917390487763742007-07-15T00:16:00.000+05:302007-07-15T00:46:24.612+05:30सब बेहतर हो रहा है...ज़िन्दगी क्यों नहीं...कुछ सरल नुस्ख़े<span style="color:#990000;"><strong><em>जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह नही है कि माह के अन्त में तनख़्वाह का भुगतान हो जाए। जीवन का लक्ष्य यह भी नहीं है कि हमारे पास एक मर्सिडीज़ कार हो या बैंक खाते में लाखों रूपये पड़े हों या एक ख़ूबसूरत बंगला हो। मेरी नज़र में ज़िंदगी का अंतिम उद्देश्य है, बेहतर ज़िंदगी जीना। हमें एक प्रश्न बार-बार स्वयं से पूछना चाहिए, "मेरे लिए अच्छी ज़िंदगी क्या होगी?' और आपको बार-बार अच्छी बातों की सूची बनाते रहना चाहिए, ऐसी सूची जिसमें आध्यात्म, अर्थ, स्वास्थ्य, रिश्ते और मनोरंजन, सभी का संतुलित रूप से समावेश हो।</em> <em>अच्छी ज़िंदगी में क्या-क्या हो, यह सोचते हुए मैंने भी कुछ चीज़ों का चयन किया है, जिन्हें आपके साथ बांटना चाहता हूँ। ..ज़िन्दगी की सारी आपाधापी में आइये कुछ वक़्त हम अपने लिये भी निकाल लें...ज्योतिष,वास्तु,फ़ेंगशुई और तंत्र-मंत्र के अलावा नीचे लिखी बातों को कभी अपनाकर देखिये और खु़द ब खु़द जान लीजिये ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के कुछ सरल नुस्खे़...ध्यान रहे ! ये सब आपको ही करना पडे़गा..और हाँ ई जो इ है ना उसे गो कर दीजियेगा ..(बड़ा लुच्चा है इगो)एक बात और ..इन नुस्ख़ों को अपनाने के लिये किसी गुरू की आवश्यकता नहीं.</em></strong></span><br /><strong></strong><br /><strong>१. उत्पादकता</strong> : यदि आप कुछ नहीं करते तो ख़ुश नहीं रह सकते। जीवन की पूर्णता आराम में नहीं है। हमें आराम करना चाहिए किन्तु सिर्फ़ इतना कि हम काम करने की ताकत जुटा सकें। क्या कारण है कि विभिन्न ॠतुएँ हैं, बीज हैं, मिट्टी है, सूरज की रोशनी है, और बारिश है, और जीवन के अन्य चमत्कार हैं? सिर्फ़ इसलिए कि आप उनका उपयोग कर सकें। औरों ने इन पर अपना हाथ जमाया, आपको भी अपना हाथ आगे बढ़ाना है। अतः जीवन का महत्वपूर्ण कदम है उपलब्ध साधनों के साथ कुछ न कुछ करते रहना।<br /><br /><br /><strong>२. अच्छे मित्र :</strong> मित्रता दुनियाभर की तमाम प्रणालियों में सबसे कारगर सहयोग-प्रणाली है। इस सुख से कभी वंचित न हों। दोस्ती के लिए हमेशा समय निकालें। इसके लाभ ही लाभ हैं और यह हर तरह से बेजोड़ है। मित्र वो शानदार लोग हैं जो आपके बारे में सब जानते हुए भी आपको चाहते हैं। कुछ वर्ष पूर्व मेरे सबसे अज़ीज़ दोस्त की ५३ वर्ष की उम्र में हृदयाघात से मृत्यु हो गई। मित्र आज नहीं है किन्तु यकीन मानिए, वो मेरे लिए बहुत विशेष था। मैं उसके लिए यही कहा करता कि मैं विदेश की किसी जेल में झूठे इल्ज़ाम में क़ैद कर दिया जाता और मुझे सिर्फ़ एक फ़ोन करने की इजाज़त होती तो मैंअपने प्रिय मित्र को ही फ़ोन करता। क्यों? क्योंकि वो आता और मुझे छुड़ा ले जाता। ऐसी होती है दोस्ती। कोई आए और आपको थाम ले। हम सबके और मित्र भी होते हैं। उन्हें फ़ोन करते तो शायद जवाब मिलता, "अरे, जब तुम लौट आओ तो संपर्क करना, हम एक पार्टी करेंगे।' यह स्वाभाविक है कि आपके दो प्रकार के मित्र होंगे, गहराई रखने वाले सच्चे दोस्त या ऊपरी आवरण वाले कामचलाऊ दोस्त।<br /><br /><strong>३. आपकी संस्कृति :</strong> आपकी भाषा, संगीत, त्यौहार एवं परम्पराएँ या पहनावा; ये सभी आपको ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी है। हमारी सबकी कुछ विशेषताएँ हैं जो सम्मिलित रूप से दुनिया में ऊर्जा, प्रभाव एवं सत्यता लाती हैं। हम कहीं न कहीं संस्कृति से अनिवार्य तौर पर जुड़े हुए हैं।<br /><br /><strong>४ अध्यात्म:</strong> आध्यात्म से परिवार की जड़ें मज़बूत होती हैं और राष्ट्र का निर्माण होता है। यह सुनिश्चित कीजिए कि आप अध्ययन करें, उसका पालन करें और लोगों को शिक्षित भी करें। अपने स्वभाव के आध्यात्मिक पक्ष की अवहेलना न करें क्योंकि उसी से हमारा सही अस्तित्व है और हम कुत्तों, बिल्लियों, चूहों और पक्षियों आदि से अलग श्रेणी में आते हैं।<br /><br /><strong>५. कुछ भी छोड़िए मत :</strong> मेरे पालकों ने मुझे सिखाया कि कुछ भी हाथ से मत जाने दो। हर खेल में शामिल रहो। कोई अच्छे प्रदर्शन, नाटक, फ़िल्म या नृत्य से वंचित मत हो। जहॉं-जहॉं जा सकते हो, अवश्य जाओ। संभव हो तो हर अच्छे शो का टिकट ख़रीदिये । नई-नई चीज़ें और स्थान देखिये तथा अपना अनुभव बढाइये; मुझे ऐसा करके हमेशा फ़ायदा हुआ है। ९३ वर्ष की उम्र में मेरे पिताजी के देहांत के पूर्व मैं उन्हें रात को १०.३० या ११ बजे फ़ोन करता तो पाता कि वे घर पर नहीं होते। वे क्लब में या बच्चों के सॉ़फ़्टबॉल मैच में या किसी संगीत की सभा में होते या फ़िर चर्च में मौजूद रहते। इसलिए अच्छा जीवन जीना आवश्यक है। कारण भी बताता हूँ। यदि आप सार्थक जीवन जीएंगे तो बड़ी कमाई करेंगे। ख़ुशी आपके चेहरे पर झलकेगी। आपकी आवाज़ में उसका असर होगा। आप विशिष्ट होंगे एवं आपका करिश्माई व्यक्तित्व होगा। इससे आप हर जगह सफलता प्राप्त करेंगे और प्रसन्न रहेंगे। आपका व्यक्तित्व एवं व्यवसायिक जीवन सुधरेगा।<br /><br /><strong>६. आपका परिवार एवं निकटतम लोग :</strong> अपने परिवार एवं निकटस्थ लोगों का ध्यान रखें और वे आपका ध्यान रखेंगे। जब मेरे पिताजी जीवित थे तब मैं अपनी यात्राओं के दौरान उन्हें फ़ोन किया करता। वे प्रायः सुबह का नाश्ता किसानों के साथ लेते थे। छोटा सा कस्बा था। मेरे फ़ोन से उन्हें दिन भर की ख़ुशी मिल जाती। जब में इज़राईल में था तो रात के मध्य उठकर पापा को फ़ोन करता। पापा फ़ोन पर आते और मैं उन्हें बताता कि मैं इज़राईल में था। वे बड़े गर्व से सबको कहते कि बहुत दूर से उनके बेटे का फ़ोन था। यदि एक बाप दिन भर अपनी बेटी का प्यार भरा स्पर्श महसूस करता है तो वह बहुत मज़बूत है। यदि एक पति घर से बाहर रहकर भी पत्नी का प्रेम महसूस करता है तो वह सारा दिन ख़ुश रहेगा। हमारे अपनों की मौजूदगी का अहसास भर हमें ताकतवर और प्रभावशाली बना देता है। इसलिए किसी अवसर को हाथ से मत जाने दीजिए और भरसक लाभ लीजिए। पैगंबर ने कहा था, "जीवन के गुण एवं मूल्य होते हैं पर सबसे बड़ा है एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का ध्यान रखा जाना।' प्यार अनमोल है। दरिया किनारे छोटे से तम्बू में अपने प्रियजन के साथ रहना महल में रहने से अधिक अच्छा है। परस्पर प्रेम जीवन की महानतम् अभिव्यक्ति है। अपनी व्यस्तताओं के चलते भी यह लगातार याद रखिए कि जीवन में आप क्या और किसलिए कर रहे हैं।<br /><br /><strong><em><span style="color:#990000;">ईश्वर करे आपको मनचाहा जीवन मिले जो कि ख़ुशियों एवं उपलब्धियों से भरा हो। यह जाम आपकी सफलता के नाम !</span> <span style="color:#990000;">हाँ यदि इन बातों को अपनाकर आप खुशी महसूस करते हैं तो इस ब्लाँग पर जताईयेगा ज़रूर ...शायद कईयों को प्रेरणा मिले..!</span></em></strong><br /><strong><em><br /></em><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">-जिन रॉन</span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">(मूल अंग्रेज़ी आलेख का हिन्दी रूपांतर हमें श्री एस.नन्द के सौजन्य से प्राप्त हुआ है ,जिसके लिये हम उनके संगठन स्वयं उत्थान के आभारी हैं)</span></strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-50306519973077808712007-07-10T21:09:00.000+05:302007-07-10T21:18:50.226+05:30स्त्री ही लक्ष्मी<div align="center"><span style="font-size:130%;color:#ff0000;">श्रिय एता: स्त्रियो नाम स्त्कार्या भूतिमिच्छिता</span></div><div align="center"><span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:130%;">पालिता गुहीता च श्री: स्त्री भवति भारत</span>.</span></div> ............महर्षि वेद व्यास<br /><br /><em><strong><span style="color:#990000;">ये स्त्रियां ही लक्ष्मी हैं विभूति की इच्छा करने वाले को इनका सत्कार करना चाहिये.</span></strong></em><br /><em><strong><span style="color:#990000;">भली प्रकार पालन-पोषण की गई स्त्री लक्ष्मी ही हो जाती है. वेद व्यास की इस बात के एक और बात है और शर्तिया है...शोध कर के देख भी लीजिये...जिस घर में स्त्री दु:खी है,तनावग्रस्त है,अवसाद में है,सताई जा रही है....जान लीजियेगा कि उस घर में धन की किल्लत हमेशा बनी रहेगी.गृहस्वामिनी खु़श...लक्ष्मी आप पर खु़श.</span></strong></em>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-70849906006323561292007-07-05T21:27:00.000+05:302007-07-05T21:39:28.210+05:30अच्छाई को आचरण में लाने का साँफ़्टवेयर नहीं बनेगा कभी.<strong><em><span style="color:#663333;">अच्छाई और नेकी करने का मौक़ा ईश्वर सबको देता है.कुछ उसे भुना लेते हैं और कर गुज़रते हैं और कुछ सिर्फ़ सोचते ही रहते हैं और भाग्य को कोसते रहते हैं...या दूसरों के भाग्य से कुढ़ते रह्ते हैं.दर-असल हमारा वैचारिक परिवेश इतना आत्म-केंद्रित हो गया है कि अच्छाइयाँ आसपास होते हुए भी हमें नज़र नहीं आतीं.समय की निर्दयता में नेकी , गुमनामी के कोहरे के बीच धुंधली पड़ जाती है.ऐसे आलम में कोई छोटा सा नेक काम होता दिखाई देता है तो वह जुगनू सा होने के बावजूद हैलोजन सा दमकता नज़र आता है.नेक शुरूआत का कोई मुहूर्त नहीं होता..बस ठान लेना पड़ता है..अच्छाई करने की मन में आए तो कर गुज़रो...उसे खु़द करना पड़ता है....अच्छाई को आचरण में लाने का साँफ़्टवेयर कभी बाज़ार में नहीं आनेवाला.</span></em></strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-72444847893945751442007-07-05T21:13:00.000+05:302007-07-05T21:24:01.147+05:30स्वर्ग नर्क का अंतर<em>एक दंपत्ति ने उत्सुकता जताते हुए एक महात्मा से पूछा:</em><br /><br /><strong><em>स्वर्ग-नर्क में क्या अंतर है स्वामीजी ?</em></strong><br /><em><strong></strong><br /></em><br /><em>महात्मा मुस्कुराते हुए बोले:</em><br /><br /><em>दोनो जगह एक जैसी है, आप स्वयं जाकर देख लें एक बार.</em><br /><br /><em>इस समय दोपहर के भोजन का समय है.</em><br /><br /><em>दंपत्ति पहले नर्क पहुँचे...खिचडी़ परोसी जा चुकी थी.</em><br /><br /><em>लेकिन कोलाहल मचा हुआ था.कारण ? भोजन की चम्मच</em><br /><br /><em>चार फ़ीट लम्बी थी..जिससे कोई खा नहीं पा रहा था.</em><br /><br /><em></em><br /><br /><em>तुरंत वे स्वर्ग पहुँचे..जहाँ वातावरण एकदम शांत था.</em><br /><br /><em>यहाँ भोजन व्यवस्था भी नर्क के समान ही थी और यहाँ </em><br /><br /><em>भी चम्मच चार फ़ीट की थी...लेकिन एक बड़ा अंतर था नर्क से....</em><br /><br /><br /><br /><strong>स्वर्ग में हर व्यक्ति अपने सामने बैठे व्यक्ति को खिला रहा था.</strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-72628746289970291462007-07-04T10:12:00.000+05:302007-07-04T10:29:33.349+05:30शुभ-विचार....जगत में यदि <strong>गेस्ट</strong> की तरह<br />रहना आ गया तो समझ लीजिये<br />मानो पूरा जगत आपका अपनी ही है.<br /><br />....आप उस दिन वाक़ई <strong>समझदार</strong> हो जाते<br />हैं किस दिन आप अपने आपको मूर्ख मानकर<br />चलते हैं<br /><br /><strong>....क़ामयाबी</strong> बेहद मामूली चीज़ है;<br />वह जीवन का एक पड़ाव तो हो सकती है ;<br />पूरा जीवन या जीवन लक्ष्य नहीं.वैसे ही जैसे<br />मुंबई घुमने जा रहे हैं बीच में सूरत स्टेशन आया;<br />प्लेटफ़ाँर्म पर उतरे ; खाने-पीने की चीज़ें ली और आकर<br />बैठ गये फ़िर अपनी ट्रेन के डिब्बे में.ऐसा थोडे़ ही है कि<br />सूरत स्टेशन का बटाटा वड़ा अच्छा लगा तो वहीं बैठ गये.<br />ऐसा करोगे तो मुंबई कैसे पहुँचेंगे ? कामयाबी सूरत<br />स्टेशन है...बटाटा वड़ा लिया और चल पडे़ अपनी मंज़िल पर.और फ़िर<br />मुंबई पहुँचे , अपना काम किया और लौट आए अपने शहर,अपने गाँव ,<br />अपने घर. तो लौटना तो है ही..<br />एक समय के बाद बाहर की यात्रा बंद हो जाए..<br />भीतर की प्रांरभ...शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-7178039155336486472007-07-04T10:08:00.000+05:302007-07-04T10:11:56.447+05:30अपनी जीत<strong><span style="color:#990000;">दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">एक वे जो काम करते हैं</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">और दूसरे वे जो श्रेय लेते हैं.</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">पहली तरह के समूह में शामिल होना</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">ठीक है ; क्योंकि वहाँ किसी तरह </span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">की प्रतिस्पर्धा नहीं है.</span></strong><br /><br /><strong><em>इन्दिरा गाँधी.</em></strong>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1130214683308073771.post-38346993541811607462007-07-01T18:28:00.000+05:302008-11-19T03:02:21.466+05:30समय ही नहीं बीत रहा...हम भी !<div align="center"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-bGgwCtO5Fbs02tdmzWAlg_JmNeJMZUlXiZD8pPgUVX9BxJOzTmIeK-_5fB-eb-Hj-35dI2FVBTMIo4v4ykdZnlwx5ZvAuSow3zBp9RQJ4yPGB0V6vlMKAfTSxb799DakZhNyTBlPnxOo/s1600-h/old+age.jpg"><span style="color:#993399;"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5082212356554895042" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-bGgwCtO5Fbs02tdmzWAlg_JmNeJMZUlXiZD8pPgUVX9BxJOzTmIeK-_5fB-eb-Hj-35dI2FVBTMIo4v4ykdZnlwx5ZvAuSow3zBp9RQJ4yPGB0V6vlMKAfTSxb799DakZhNyTBlPnxOo/s320/old+age.jpg" border="0" /></span></a><span style="color:#993399;"><br /></span><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">हर कोई लम्बी उम्र की </span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">कामना करता है ; </span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">किंतु कोई भी</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">बूढा़ नहीं होना चाहता</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">समय व्यतीत न करें</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">प्रतिपल जीवन जीएँ</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">कर्म-पथ पर श्रम की छाँह में</span></strong><br /><strong><span style="font-size:180%;color:#993399;">आनन्द रस पीएँ</span></strong> </div>शब्द-सृष्टिhttp://www.blogger.com/profile/02059314373378705514noreply@blogger.com0