नूर साहब उर्दू शायरी का एक बडा नाम रहे हैं।
इश्क और मुश्क है ऊपर उठकर अपनी शायरी के ज़रिये
पाठक को एक रूहानी लोक की सैर करवाने वाले इस अज़ीम शायर
की ये लाजवाब ग़ज़ल आपकी नज़्र
आग है पानी है,मिट्टी है,हवा है मुझमें
और फ़िर मानना पडता है ख़ुदा है मुझमें
जितने मौसम हैं,वो सब जैसे कहीं मिल जाएं
इन दिनों कैसे बताऊं जो फ़ज़ाँ है मुझमें
टोक देता है क़दम जब भी ग़लत उठता है
ऐसा लगता है कोई मुझसे बडा है मुझमें
आईना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें
5 comments:
नूर साहब की उम्दा शाइरी पढ़वाने का शुक्रिया।
वाह क्या खूब!सुबह सुबह अच्छी गज़ल पेश करने के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया..
बहुत शुक्रिया …इस कड़ी को आगे बढ़ाइये--
संयोग है, कल रात ही यू ट्यूब पर नूर साहब का वीडिओ देखा था. बह्त ही झूम के गाते हैं नूर . मज़ा आ गया.
उनकी एक और ताज़ा गज़ल सुनी :
वो कहां खुश होता है पूजा बगैर
कुछ नहीं मिलता सजदा बगैर.
ये तअज्जुब है कि मंज़िल मिल गयी
ज़िन्दगी च्
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