Sunday, April 27, 2008

आपके ह्र्दय-द्वार पर....दिनकर सोनवलकर

न जाने क्या बात है कि हमारा मालवा अपनी गुदड़ी के लालों को वह मान देता ही नहीं जिसके वो अधिकारी होते हैं.ऐसे ही एक सु-कवि दिनकर सोनवलकर आज शब्द-सृष्टि की जाजम पर पधारे हैं । सोनवलकरजी ने हिन्दी ग़ज़ल पर भी लाजवाब काम किया है (जिसे नीरज जी गीतिका कहते हैं )मराठी के यशस्वी कवियों के अनुवाद भी सोनवलकरजी ने किये है।कुछ बेहतरीन गीत आकाशवाणी इन्दौर से प्रसारित हुए हैं.दो रचनाएं पढ़िये और महसूस कीजिये इस विलक्षण क़लमकार की कारीगरी को.ये रचनाएं १९७० यानी अब से ३८ बरस पहले हिन्दी की आदरणीय पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुईं थीं...

एक सूचना...

कला के इस मंदिर में
झुककर प्रवेश कर.
इसलिये नहीं कि
प्रवेशद्वार छोटा है ?
और तेरी ऊँचाई से
टकरा कर टूट जाएगा .
नहीं !
आकाश ही उसका द्वार है...विराट
यहाँ बौने ही लगेंगे तेरे ठाठ-बाट.
इंसानियत के आगे झुकना
सबसे बडी़ कला है
उन्ही को कर प्रणाम
इसी में छुपे हैं....
रहीम और राम।


परंपरा बोध.....

मुझे क्या ज़रूरत है
विदेशी स्टंटों से चमकृत होने की ?
जिसकी हों अपनी जड़ें,वही औरों के भरोसे जिये.
क्या बताएगा गिन्सबर्ग मुझ कबीर पंथी को ?
पहले कह गया है गुरू हमारा
जो घर फ़ूँके आपनो सो चले हमारे साथ
तुम पहनो अपने तन पर
उधार ली हुई फ़ाँरेनमेड पोषाकें
हम तो जन्म से ही नंगे हैं..नंगे अवधूत
मर्लिन मूनरो या मारिज़ुआना
दोनों हदों से बेहद हो चुके हैं हम .
'हम न मरिहै संसारा'
बीटनिक,बीटल्स या हिप्पी,सभी हैं माया का पसारा.
इस ठगिनी को खू़ब जानते हैं हम .
तुम नये जीवन-दर्शन के नाम पर
बडी़ पुरानी विकृतियों को उछालत हो
रचते रहो आँप या पाँप
हम तो बस चुपचाप
ज्यों की त्यों धर देते हैं चदरिया
विद्रोह को पतिक्षणं जीते हुए !

-दिनकर सोनवलकर

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