Monday, March 3, 2008

मानव से क्षुद्र वस्तु की अपेक्षा करना उसका अपमान है !

विश्वकर्मा जब सृष्टि का निर्माण कर चुके तो उन्होने फूल को आदेश दिया...
तू सदैव सौरभ फ़ैलाते रहना।


आकाश में घूमने वाले मेघ से उन्होंने कहा...पवन तेरा रथ है , व्योम-मंडल तेरा विहार-पथ है; पर तेरा काम है प्यासी धरती की प्यास बुझाना।

वृक्ष से उन्होंने कहा...भीषण ग्रीष्म को मस्तक पर सहकर भी तू प्राणियों को सदा छाया देना और तेरे पुष्प तथा फ़ल की सम्पत्ति मानव-समाज को समर्पित करना।

नदी को उन्होंने आदेश दिया ...तू कल-कल स्वर में गाती रहेगी पर तुझे प्यासे प्राणियों की प्यास बुझानी है !

केवल मानव के संबंध में विश्वकर्मा के आदेश विचित्रता से भरे थे...उन्होंने उसे दु:ख दिया ताकि इस दु:ख में से वह सुख के कण खोज निकाले।उसे अंधकार दिया ताकि वह अंधेरे के बीच पथ का निर्माण कर सके।मानव को मृत्यु दी और उससे अपेक्षा की गई कि वह मृत्यु में से अमरताकी राह चुने, असत से सत की राह अपनाए.

यह इतना बड़ा बोझ मानव के ही कंधों पर ही डाला गया क्योंकि वह विश्वकर्मा की श्रेष्ठ कृति है और फ़िर एक वीर से कीड़ा मारने को कहना उसका अपमान ही तो है न ? मानव से क्षुद्र वस्तु की अपेक्षा करना उसका अपमान ही तो होता ! विश्वकर्मा को विश्वास था कि मेरा लाड़ला मनुष्य सब-कुछ कर सकेगा।

(इन्दौर के आध्यात्मिक आस्था केंद्र श्री गीता भवन की स्वर्ण - स्मारिका पर हाल ही में प्रकाशित स्मारिका स्वर्ण - गीत से साभार, इसका रूपांकन मेरे संस्थान एडराग कीक्रिएटिव टीम ने किया है:
www.adraag.com)